मेरे स्व. दादाजी श्री जगमोहन कोकास हिंदी के प्रसिद्ध कवि श्री भवानीप्रसाद मिश्र के शिष्य थे । उनकी प्रेरणा से उन्होंने हिंदी साहित्य रत्न में एम.ए किया और प्रयागसे हिंदी साहित्य रत्न की परीक्षा पास की ।
पंडित भवानी प्रसाद मिश्र ने दादाजी से कहा था कि बेटे तुम्हारा जन्म हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए हुआ है इसलिए हिंदी की सेवा करते रहो हिन्दी भाषा को देश में आगे बढ़ाते रहो ।
शिक्षक के रूप में उनकी पहली पोस्टिंग चांदूर (महाराष्ट्र) में हुई थी उसके पश्चात दादाजी भंडारा आ गए वहां उन्होंने हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए बहुत काम किया ।
सबसे पहले वे बेसिक
प्रशिक्षण कॉलेज में आये उसके बाद बी.एड कॉलज में प्राध्यापक के रूप में हुई ।
दादाजी हिंदी के शिक्षकों को प्रशिक्षण देने का कार्य करते रहे । उनके द्वारा प्रशिक्षित शिक्षकों ने भी हिंदी की सेवा की ।
आज मैं उनकी पोती हिंदी दिवस पर उनके द्वारा हिन्दी राष्ट्रभाषा पर लिखित लेख का अंश प्रस्तुत कर रही हूं ।
दादाजी हिंदी के शिक्षकों को प्रशिक्षण देने का कार्य करते रहे । उनके द्वारा प्रशिक्षित शिक्षकों ने भी हिंदी की सेवा की ।
आज मैं उनकी पोती हिंदी दिवस पर उनके द्वारा हिन्दी राष्ट्रभाषा पर लिखित लेख का अंश प्रस्तुत कर रही हूं ।
राष्ट्रीय एकता व राष्टभाषा एक दुसरे के पूरक है यह कहना समीचीन होगा की
राष्ट्रीय एकता के गन्तव्य पर पहुँचने के लिए विभिन्न सीढ़ीयों में राष्टभाषा
प्रमुख सीढ़ी है । यह सचमुच
हमारी माता के समान है जो हमारा पालन पोषण करती है हमें योग्य नागरिक बनाती है यह
हमें वह मन्त्र देती है जिसके द्वारा राष्ट्रीय एकता के आड़े में आने वाली सारी
बाधाओं का निवारण सम्भव है ।
हमारे देश की भाषाई संरचना को देखें । हमारे यहाँ अनेक भाषाएँ प्रचलित है । और उन्ही को आधार बनाकर प्रातीय रचना कर दी गई । पंजाबी से पंजाब , गुजरात से गुजराती असमिया से आसाम
,बंगाली से बंगाल मराठी से महाराष्ट तमिल से तमिलनाडु ,
उड़िया से उड़ीसा, बिहार इत्यादि उदाहरण दिए जा
सकते है । इसका प्रभाव यह
हुआ की इन संकीर्ण भाषाई बादलों ने विशाल भारत के आकाश को ढंक लिया । ये अलग अलग भाषाई प्रांत और यंहा के लोगो ने
अपनी ढपली अपने राग को ही ही प्रमुख आधार बनाकर अपने अपने वर्चस्व को ही अपना
मुद्दा बना लिया । यही कारण
है की वर्तमान समय में वे अपने भूखंडो के लिए दुसरे प्रान्तों से झगड़ रहे है । वे केवल 'सुजलाम सुफलाम
मलयज शीतलाम' का नारा ही लगा सकते है इसका परिणाम यह हुआ की
अनेक हिन्दी भाषा के जानकार योग्यता के बावजूद नौकरी से वंचित हो गये । हांलाकि सरकार का यह कर्तव्य बनता है की पहले
इस भाषा को तात्विक और संगठित रूप दिया जाए फिर उसे राजकीय भाषा का दर्जा दिया जाए । इस निर्णय का अर्थ तो यह हो जाएगा की देश के
छह सौ अधिक टुकड़े करने पड़ेगे । भाषिक गतिरोध बढ़ जाएगा । फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता की मूल भावना खटाई में पड़ जाएगी ।
इस समस्या का समाधान हमें हिन्दी के प्रचार और
प्रसार में गति लानी होगी । इस
महान कार्य को पूरा करने के लिए देश में उंगली पर गिनने लायक हिन्दी प्रचार
समितियां है हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ,राष्ट्रभाषा
प्रचार समिति वर्धा तथा उसकी शाखाएं । दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार संस्थाएं इस महान कार्य में जुटी है पर इन
सभी संस्थाओं को परीक्षा केन्द्रित कर दिया गया है देशा के नागरिकों के लिए
सामान्य तौर पर प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है हिन्दी की लोकप्रियता तो दूर कई
क्षेत्रो में इसका घोर विरोध भी अपनी सीमा लांघ रहा है ।विशेषत: दक्षिण भारत में सामन्य जनता में भी जागृति नहीं आ रही है । इसका असर राजनीति पर भी पड़ रहा है हिन्दी
भाषी प्रदेशों पर भी आये दिन छीटाकाशी होती रहती है ।
यह सचमुच चिंता का विषय है । कभी -कभी ऐसा लगता है हिन्दी ,हिन्दी भाषीय लोगों से
भी मात खा रही है । कई अवसरों पर हमारे राजनेता
और साहित्यकार विदेशों में देश का प्रतिनिधित्व करने जाते है । वहां अंगरेजी झाड़ने में ही अपना गौरव समझते
है । अन्तराष्ट्रीय संघ में
भी अंगरेजी का बोलबाला रहता है । शासन के प्रथम निर्णय के अनुसार गणतन्त्र दिवस उन्नीस सौ पचास से ही
हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाना था परन्तु हनुमान की पूँछ के सामान यह
आदेश आगे आगे सरकता जा रहा है । वोटों की राजनीति में हमारा मूल अधिकार पिस्ता चला जा रहा है और हम उस
महान शायर की उक्ति ' हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा'
केवल सपनों में ही देख रहे है । राष्ट्रभाषा का ज्ञान और उपयोग सबके लिए , सभी
राजनायकों, शासकीय अधिकारी , सभी
मंत्रियों यहाँ तक कि देश के प्रथम नागरिक याने महामहिम के लिए भी अनिवार्य कर
दिया जाए यही समय की पुकार है । इसी कठोर निर्णय से राष्ट्रभाषा का उध्द्धार हो सकता है सही मायने में
राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार हो सकता है ।
यह सत्य है की हम राष्ट्रभाषा पर आये संकट की जहां बात कर रहे
है वही यह पूरा देश महासंकट से गुजर रहा है । नेताओं को भाषा की चिंता से अपनी कुर्सी बचाने की चिंता ज्यादा है । आज के हालत देखते हुए कल्याणकारी देशभक्त और शक्तिशाली
संगठनों की सख्त जरुरत है । मीडिया
को भी अपनी भड़काऊ नीति त्यागनी होगी व देश का वातावरण सौम्य बनाना होगा तथा जनता
को भी भड़काने वाले देशभक्षकों का बायकाट करना होगा उन्हें समझना होगा कि उनसे देश
का अहित हो रहा है तथा राष्ट्रीय एकात्मकता में कीड़े पड़ते जा रहे है ।हमें इस जीवित रखना होगा । तभी देश में सद्भावना ,सच्चा धर्म , सच्ची राजनीति , पवित्र राष्ट्रीयता , एकरूपता , सामंजस्य देशभक्ति , देश की सुरक्षा की भावना और सबको एक सूत्र में बाँधने वाली भाषा अपने
सच्चे रूप में प्रस्फुटित होगी और हम गर्व से साथ कह सकेंगे -
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुले है इसकी ये गुलसितां हमारा ।
हिन्दी हमारी
राष्ट्रभाषा है मेरा निवेदन हिन्दी भाषा को आने वाली हर पीढ़ी के लिए हमे हमारी
राष्ट्रभाषा हिन्दी को बनाये रखने का प्रयास करते रहना है ।
10 टिप्पणियाँ:
बढिया लेख , हिंदी सेवी बाबूजी को नमन
बहुत बढ़िया, सार्थक !!
बहुत अच्छी जानकारी । आदरणीय जगमोहन कोकास के बारे में पढ़ कर अच्छा लगा । नमन उनको ।
धन्यवाद सुषमा जी
धन्यवाद निरुपमा जी
थैंक्यू डैडी
नमन
धन्यवाद राजेन्द्र जी
चलती किससे जीविका, जानत यह सब लोग।
हरदम बाजी मारता, दक्षिण का ही ढोंग।।
शासकीय कार्यालयों में इनकी अधिकता ज़्यादा है...
और मेरा व्यक्तिगत अनुभव है इन्हें देश की एकता अखंडता से से कोई लेना देना नही... आज देश के कोने कोने में शासकीय सेवा हो या व्यवसाय से ये लोग जुड़े हैं । हिंदी समझते नहीं ऐसी बात भी नही है। हिंदी फिल्मों का आनंद भी लेते हैं...मगर हिंदी का छद्म विरोध..विडंबना ही है....बाबूजी (कोपल के दादाजी)के उत्तम विचार..
बिटिया..... बढ़े चलो...
बहुत बढ़िया..... 👌👍👌👍👌👍💐💐💐
धन्यवाद सूर्यकांत अंकल जी
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