' बाबू मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं '


   '' कठपुतली का दर्द किसने जाना है | डोर नचाती है खुश होता जमाना है '' 


                     कठपुतली विश्व के प्राचीनतम  रंगमंच पर खेला जाने वाले मनोरंजन कार्यक्रमों में से एक है कठपुतलियो को विभिन्न गुड्डे गुडियों ,जोकर आदि पत्रों के रूप में बनाया जाता है इसका नाम कठपुतली पूर्व में लकड़ी अर्थात काष्ठ से बनाया जाता था इस प्रकार काष्ठ से बनी पुतली का नाम कठपुतली पड़ा  प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को विश्व कठपुतली दिवस मनाया जाता है  
कठपुतली कला का इतिहास

          कठपुतली शब्द संस्कृत भाषा के 'पुत्तलिका' या 'पुत्तिका' और लैटिन के 'प्यूपा' से मिलकर बना है जिसका अर्थ है छोटी गुडिया सदियों पहले कठपुतली का जन्म भारत में हुआ था कठपुतली के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में महाकवि पाणिनी के अष्टाध्याई ग्रंथ हमें पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है। उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य के सिंहासन में जड़ित 32 पुतलियों का उल्लेख सिंहासन बत्तीसी नामक कथा में भी मिलता है शुरू में इनका इस्तेमाल प्राचीनकाल के राजा महाराजाओं की कथाओंधार्मिकपौराणिक व्याख्यानों और राजनीतिक व्यंग्यों को प्रस्तुत करने के लिए किया जाता था।
         
कठपुतली कला में बदलाव

         हमारे देश में कठपुतली कला के स्वरूप में खासे बदलाव देखे जा सकते है आज इनमे महिला शिक्षा ,प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन जैसे विषयों पर आधारित कार्यक्रम , हास्य-व्यंग्य और शैक्षणिक कार्यक्रम भी दिखाए जाते है पहले जहां इनके प्रदर्शन में लैंप और लालटेन का प्रयोग होता था आज कठपुतली कला के बड़े-बड़े थियेटर में शोज दिखाए जाते है ।
         पहले कठपुतली कलाकार अपने ग्रुप के साथ गाँव-गाँव में घुमते थे औत तरह - तरह की कहानियों के नाटक दिखाकर अपना गुजारा करते थे इससे कठपुतली का विस्तार पूरे देश में हो गया और यह यह अलग -अलग राज्यों की भाषा , पहनावे और लोक संस्कृति के रंग में रंगने लगी अंगरेजी शासनकाल काल के अलावा यह कला विदेशो में भी पहुँच गई 
          आधुनिक युग में यह कला अब कठपुतली कला का उपयोग मात्र मनोरंजन न रहकर शिक्षा कार्यक्रमों , रिसर्च कार्यक्रमों  , विज्ञापनों आदि अनेक क्षेत्रो में उपयोग किया जा रही है 
 विदेशो में लोकप्रिय 

puppet in foreign 

                 












                   इंडोनेशिया,थाईलैंड,जावा,सुमात्रा,श्रीलंका,चेकोस्लोवाकिया,चीन,रूस,रूमानिया,अम्ररीका,जर्मनी,जापान,इंग्लॅण्ड आदि में काफी इस कला का प्रसार हो चुका है विदेशी पर्यटकों में कठपुतली कला काफी लोकप्रिय रही है ।कई विदेशी कठपुतलियों को अच्छी कीमतों में खरीदते है कई इसकी कला की बारीकियो को भी सीखते है । कई पर्यटक सजावटी चीजे ,स्मृति एवं उपहार के रूप में कठपुतलियाँ खरीदते है ।

कठपुतलियों का रंग-बिरंगा व जादुई संसार



       कठपुतली का जादुई संसार बड़ा ही रंग-रंगीला है कठपुतली अत्यंत प्राचीन नाट्य कला है,जो प्रसान्त महासागर के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक व्यापक रूप से प्रचलित रहा है   कठपुतलियो के माध्यम से जीवन के अनेक प्रसंगों की विभिन्न विधियों से अभिव्यक्त की जाती है और जीवन को नाटक के माध्यम से दिखाया जाता है इसके माध्यम कलाकार न केवल लोगो का मनोरंजन करता है बल्कि समाज को एक सन्देश भी देता है यह सन्देश सामाजिक कुरीतियों ,अन्धविश्वासो के प्रति लोगो को जागरूक करता है ग्रामीण  क्षेत्रों में कठपुतली कला के माध्यम से स्वास्थ्य,सफाई और बच्च्चों को शिक्षित भी किया जाता है लेकिन मनोरंजन के नए साधनों और बाजारवाद के चलते सदियों पुराना कठपुतलियों का यह जादुई संसार उजड़ने लगा है ।
      
रंगबिरंगी दुनिया 
  भारतीय संस्कृति का प्रतिबिम्ब लोककलाओ में झलकता है इन्ही लोककलाओ में कठपुतली कला भी शामिल है पारम्परिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य , लोककथाएं और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है पहले अमर सिंह राठौर , पृथ्वीराज ,हीर-रांझा ,लैला-मजनू,शीरी-फरहाद की कथांए ही कठपुतली कला में दिखाई जाती थी लेकिन अब साम- सामयिक विषयों ,महिला शिक्षा ,प्रौढ़ शिक्षा , दहेज़ प्रथा ,परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य व्यंग्य ,ज्ञानवर्धक व् अन्य मनोरंजन कार्यक्रम दिखाए जाने लगे है कठपुतली नाच की किस्म में पार्श्व से उस इलाके का संगीत बजता है जहां का वह नाच होता है कठपुतली नचाने वाला गीत गाता है और सम्वाद बोलता है कठपुतली की सबसे ख़ास बात यह है की इसमें कई कलाओं का सम्मिश्रण है इसमें लेखन कला , नाट्यकला , लेखन कला , चित्रकला ,मूर्तिकला ,काष्ठकला ,वस्त्र निर्माण कला ,रूप सज्जा , संगीत ,नृत्य जैसी कई कलाओं का इस्तेमाल होता है इसलिए बेजान होने के बाद भी ये कठपुतलियाँ जिस समय अपनी पूरी साज सज्जा के साथ मंच पर उपस्थित होती है तो दर्शक पूरी तरह उनके साथ बंध जाते है

दुनिया भर में कठपुलती

   छाया या शेडो कठपुतली'
   'धागा स्ट्रिंग कठपुतली'
   'हाथ या दस्ताना कठपुतली
   'रॉड कठपुतली'
   'कार्निवाल कठपुतली
  कर्नाटक में स्ट्रिंग गोम्बेयट                                        
   उड़ीसा साखी कुंधेई
   तमिलनाडु की बोम्मालत्तम
   पश्चिम बंगाल का पुतला नाच
   आसाम का पुतला नाच
   बिहार की यमपुरी
   महाराष्ट में 'मालासूत्री बहुली'
   केरल का पावकथाकलि
   गुजरात की भवई
   हिमाचल प्रदेश की कारयाला
 

दुनिया की अतरंगी कठपुतली 
           राजस्थानी कठपुतली - राजस्थानी कठपुतलियों का चेहरा ओवल ,बड़ी आँखे धनुषाकार भौंहे और बड़े होंठ इन्हें अलग ही पहचान देते है 5-8 स्ट्रिंग्स से बंधी ये कठपुतलिया राजस्थानी संगीत के साथ नाटक पेश करती है ।
           लकड़ी के छोटे छोटे टुकड़ों और फटे पुराने कपड़ो के साथ गोता तथा बारीक काम से बनी राजस्थान की कठपुतलियाँ हर किसी को भावविभोर कर देती है लेकिन यहाँ की कठपुतली की बनावट से भी ज्यादा खेल , प्रदर्शन मंत्रमुग्ध करने वाला होता है राज्य में राजा - रानी , सेठ-सेठानी ज़मीदार ,किसान और जोकर आदि पात्रों को लेकर कठपुतली बनाई जाती है 
          राज्य में कठपुतली खेल में हर शेत्र के अनुसार भाषा और क्षेत्रीय रंगत पाई जाती है लकड़ी और कपड़े से बनी और मध्यकालीन राज्स्थामी पोशाक पहने इन कठपुतलियो द्वारा इतिहास के प्रेम पसंग दर्शाए जाते है देती जिसे बोली कहते है जिससे तेज धुन बजाई जाती है प्रयोग की जाती है ।


लुप्त होती कठपुतली की पारम्परिक कला 


         
          संसार में राजस्थान की शोहरत और संस्कृति की झलक दिखाने वाली     परम्परागत कठपुतली लोककला संकट के दौर से गुजर रही है कद्रदानो की     कमी और सरकारी संरक्षण के अभाव में इस कला के लुप्त होने का खतरा 
बढ़ता जा रहा है राजस्थान के गाँव-गाँव में कठपुतली कला का खेल दिखाया    जाता था लेकिन यंहा कठपुतली कला के प्रति आकर्षण कम हो रहा है राजस्थान में कई इसे परिवार है जिनकी रोजी रोटी का एकमात्र जरिया कठपुतली बनाकर बेचना और खेल दिखाना है जयपुर शहर में तो एक मौहल्ला ही कठपुतली नगर के नाम से जाना जाता है कठपुतली से जीविकोपार्जन करने वाले इन परिवारों में महिलाने और बच्चे कठपुतली की पोशाक पहनकर तैयार करने और पुरुष उसका ढांचा बनाने ,रंग-रोगन तथा सजावट करने तथा प्रदर्शन का काम करते है लेकिन आज जिस तरह से इस कला की लोकप्रियता घटती जा रही है उन हालात में ये परिवार अपने पुश्तैनी धंधे छोड़कर एनी कामकाज करने लगे है । जयपुर से बाढ़ की.मी दूर चोकी ढाणी में नित्य दिखाया जाने वाला कठपुतली का खेल बेजान सा नजर आता है 


1 टिप्पणियाँ:

कोपल कोकास ने कहा…

जी धन्यवाद शास्त्री जी

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