कलाकारी |
विभिन्न संस्कृतियों से प्रभावित होकर भारत कढाई
कला अत्यंत ही निखर गई अपनी कुछ विशिष्टताओ के कारण यहाँ की कढ़ाई कला अपनी मिट्टी
की सोंधी खुशबू और रंग के लिए एक अलग सी पहचान बनाए आज पूरे विश्व को आकर्षित कर
रही है ।
आज हमें हमारे भारत
की परम्परागत कढ़ाई कला के बारे जानना जरुरी है की भारत हर क्षेत्र में कितने तरह -
तरह की कढ़ाई की कला की जाती है ताकि हम स्वयं भी उनसे अवगत हो और आने वाली पीढ़ी को
कढ़ाई की कला से अवगत कराए ताकि वह यह जाने हमारे इतिहास में लोग वस्त्रो पर बहुत
मेहनत करके कढ़ाई की कलाकारी करते थे ही अपना व अपने परिवार का पेट पालते थे आज भी
गांड के कुछ क्षेत्रो में यह कारीगरी ही लोगो का पैतृक धंधा है आइये हम इन
कलाकृतियों को जानते है ।
कश्मीरी कढाई कला - जिस प्रकार कश्मीर की घाटियाँ अपनी प्रकृतिक ख़ूबसूरती के लिए जाना जाता
है उसी प्रकार यहाँ की कढ़ाई- कला भी अपनी रंग योजना डकारा वस्त्रों पर प्राकृतिक
छठा प्रस्तुत करने के लिए प्रसिध्द है यहाँ की एक प्रसिध्द कढ़ाई 'अक्सी' दुनिया भर
में जानी जाती है यह कढ़ाई बहुत ही महीन सूई और पतले धागे से की जाती है सूई
वस्त्रों के तानों और बानो के बीच से चीरती हुई सफाई से निकल जाती है की कढ़ाई
वस्त्र के एक ओर दिखाई देती है कश्मीर का कशीदा एक आश्चर्यजनक कढाई का कार्य है
इसकी विशेषता है यह दोनों तरफ से एक समान होता है व् दुसरे तरफ आसानी से रंगीन
धागों से नया डिजाइन बनाया जा सकता है इसमें सेटिन टाँके, उल्टी बखिया, हेरिंग
बॉन,चेन टाँके , रफू आदि प्रयोग किए जाते है ।
ऐसी कशीदाकारी
दोरुखी या दोरंगी कहलाती है प्रसिध्द पश्मीने के सालो पर यही कढ़ाई की जाती है ।
शाल के अतिरिक्त
कश्मीरी कोट , टोपी, जूते मफलर, साड़ियाँ, कुरते, नमदा , शाह्तोस, पर कश्मीरी टांको
पर कढाई की जाती है ।
पंजाब दी फुलकारी |
पंजाब की फुलकारी - फुलकारी पंजाब की प्राचीन कढाई है फुलकारी का अर्थ फूलो की कला फुलकारी
का शाल पंजाबियों में भुत लोकप्रिय है यह अक्सर शादी में दुल्हन ओढती है परिवार
में कन्या का जन्म होते ही विवाह में उपहार के लिए फुलकारी के बनाने की तैयारी
आरम्भ की जाती है ।
पंजाब में यह कार्य
ऊंटवाली जाती द्वारा किया जाता है फुलकारी पंजाब के अमृतसर, लुधियाना, जालन्धर,
पटियाला, हर जगह की जाती है ।
फुलकारी का काम खद्दर
कपड़े पर रफू ताने द्वारा किया जाता है यह उल्टी तरफ से बनाये जाते है भरवां टांको
से बनी होने के कारण नमूने सघन होते है इन नमूनों में फूल, पत्तियाँ, चाँद,सूरज, मकडी
का जाल,लहरे बनाई जाती है यह कढाई
लाल,पीले, हरे रंगों का प्रयोग होता है Ι
बंगाल का कांथा |
बंगाल का कांथा
- बंगाल में कांथा का मतलब कपड़े के टुकड़े से होता है कांथा पुरानी साड़ियों ,
धोतियो, या पुराने वस्त्रो को जोड़कर तह पर तह लगाकर बनाये जाते है इन टुकडो को इस
तरह जोड़ा जाता है की ऊपरी तरफ बारीक रफूगरी का सुंदर नमूना बन जाता है कांठे के
नमूने पशु-पक्षी, मांगलिक चिन्ह, मनुष्य की आकृति, बनाये जाते है बंगाल का कांथा
रनिंग स्टीच रफू टाँके से बनाया जाता है नमूने हल्के व् गहरे से बनाये जाते है
कांथा का कार्य
बंगाल में ही नहीं भारत के अन्य क्षेत्रो में भी प्रसिध्द है उत्तरी भारत में फटे
कपड़े को एक के ऊपर रखकर गद्दी जैसा बनाया जाता है उतरी बिहार में सजनी और बिहार के
एनी भाग में गुदड़ी कहा जाता है Ι
लखनऊ की चिकनकारी |
l
लखनऊ की चिकनकारी - चिकनकारी का अर्थ है चिकन का कार्य
चिकन फारसी शब्द से बना है जिसका अर्थ बेलबूटे उभारना ।
चिकनकारी
का प्रमुख केंद्र लखनऊ है जिसमे लखनवी नजाकत देखने को मिलती है चिकन का काम सफ़ेद
कपड़े पर सफ़ेद धागे से किया जाता है चिकनकारी का कार्य सम्राज्ञी नूरजहाँ के समय
में सबसे अधिक विकसित हुआ Ι
चिकनकारी
का कार्य सूती में मुर्री, बखिया ,जाली तेप्ची ,फंदा ,लौंग, आदि टांको का प्रयोग
किया जाता है सबसे ज्यादा मुर्री टांका ही प्रयोग किया जाता है
चिकन के
नमूनों में पशु -पक्षी , ताज,गुलदस्ते,मोर बनाते थे बेल बूटे ,कैरियो,फूल पत्ते
बनये जाते है Ιचिकन की साड़ियाँ,कुरते, रुमाल ,टी,मेजपोश बहुत
प्रसिध्द है Ι
कर्नाटक की कसूती - कर्नाटक में कसूती का काम किया जाता है
धारबाड ,बेलगाँव, बीजापुर, कसूती के उद्गम केंद है कसूती का काम ज्यादातर महिलायें
ही करती है कसूती के लोकप्रिय नमूने हाथी, हिरन,मोर,तोता ,पालकी,कमल, होते है जिन्हें
लाल ,बैगनी, हरे व् नारंगी रंग से भरा जाता है वस्त्रो में पल्ला, चोली, घाघरा, टीप
सजाए जाते है
वस्त्रो
पर ग्वनती ,नेगी,मेथी क्रोस टांको, मुरागी, से कसूती का काम किया जाता है कसूती का
कार्य परिश्रमी खेतिहर, बुनकर लोगो द्वारा किया जाता है ।
कच्छ की कशीदाकारी -
कच्छ गुजरात के सिरे पर है यहाँ के कुछ
कस्बो दूरस्थ गाँवों विभिन्न वर्ग के लोगो द्वारा कढाई का काम किया जाया है कच्छ की
कशीदाकारी मुख्यत: मोची, कनबी,अहीर ,रबारी वर्ग द्वारा की जाती है कच्छ की
कशीदाकारी में जंजीरी टाँके, फुलकारी टाँके, काज टाँके, का प्रयोग किया जाता है कशीदाकारी
का काम साटन पर किया जाता है गुजरात के अनेक शहरों में कशीदाकारी के वस्त्र मिलते
है ।
कच्छ की कशीदाकारी |
काठियावाड़ की कशीदाकारी -
काठियावाड़ की कशीदाकारी |
दुल्हन की बनारसी साड़ी |
बनारस की जरी कला - उत्तर भारत में जरी की कढाई युक्त परिधानों का प्रयोग अधिकतर धनी
वर्ग के लोग करते
रहे है बनारसी साड़ियों के बिना आज भी ब्याह की रस्में अधूरी मानी जाती है जरी
के सुनहरे , रुपहले तारों से सादी,घाघरे , चोली,चूनर, टोपियाँ , जूते पर्स ,बेल्ट
, पर भरवां कढाई की जाती है ।
हिमाचल की कढ़ाई -
हिमाचल के आंचल
में बने ये कढ़े हुए वस्त्र अपने सौन्दर्य के प्रसिध्द है चम्बा रुमाल पारम्परिक
कढ़ाई का उदाहरण है इसमें बड़े-बड़े रेशमी रूमालो पर चारों ओर फूल पत्तियों वाली
बेलें कढी जाती है मध्य भाग में ढोलक,मृदंग, तुरही, बजाते हुए स्त्री-पुरुष
श्रीकृष्ण की रासलीला,रथयात्रा के दृश्य सैटिन स्टिच द्वारा बनाए जाते है ये रुमाल
पूजा की थाली प्रसाद ढंकने पवित्र स्थानों पर बिछाने के काम आते है Ι
हिमाचल का चम्बा |
मद्रासी कढ़ाई - इस कढ़ाई कला पर
अंग्रेजो के स्पष्ट प्रभाव के कारण एंग्लो इंडियन एम्ब्रायडरी भी कहते है इस कढ़ाई द्वारा बने रुमाल पूरे के पूरे नमूने युक्त होते है चेन,बटन
होल, ब्लैंकेट,फ्रेंचनोट ,भरन्वा टांको का प्रयोग होता है Ι
राजस्थानी कढ़ाई - राजस्थान की दबका ,डंका ,गोटा ,कारचोबी ,मेव ,पिछवाई कढ़ाई में चमकीले मोटे शीशे जड़कर कशीदाकारी लहंगो,चालीस कली वाले घांघरे चूनर चोलियों में सुनहरे ,रुपहले तारो के साथ चटक रेशमी धांगो से कढाई की जाती है
2 टिप्पणियाँ:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-09-2017) को
"एक संदेश बच्चों के लिए" (चर्चा अंक 2737)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया लेख
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