जीरे जड़ी हुई नमकीन काजू बिस्किट |
मेरे आने के पहले दादा जी पड़ोस के पप्पू भैया की
दुकान से जाकर जीरे जड़े हुए वाली काजू बिस्किट जरुर लाकर रख लेते थे वो पप्पू भैया
भी समझ जाते थे अच्छा दादा जी की पोती आई है तभी वे यह बिस्किट लेकर जा रहे है
दादा जी भी यह बात अच्छी तरह ऊपर के खाने में मतलब शेल्फ में स्टील के बड़े से डिब्बे
की और नजर जरुर जायेगी और मैं जरुर पूछूगी कि दादा जी काजू वाले बिस्किट लाये कि
नहीं ।
मेरे पूछने के पहले ही दादा जी कांच
के सफेद रंग वाली कब्ब्शी ( प्याले ) में बहुत सारी बिस्किट लाकर दे देते थे पर
मुझे ज्यादा बिस्किट खाने नहीं मिलती थी क्योंकि दादा जी कहते थे ज्यादा बिस्किट
खाने से दांत खराब हो जाते है इसलिए दादा जी डिब्बा बदल देते मैं बहुत सारे बिस्किट
मांगूगी इसलिए वो हर बार डिब्बे बदल देते थे पर मुझे पता चल ही जाता था कि इसी
डिब्बे में रखे है काजू वाले बिस्किट ।
यह जीरे जड़े हुए काजू वाले बिस्किट ही
मेरा दादा जी की तरफ से होली का उपहार होते थे एक - एक काजू उठाकर खाने में बहुत
आनन्द मिलता था नमकीन बिस्किट और उस पर जीरा का तीखा स्वाद एक अलग ही स्वाद हो
जाता था जीभ का ।
कभी
- कभी ऐसा भी होता था कि दादा जी भूल जाते थे कि कोपल के लिए काजू बिस्किट लाना है
तो मैं दादा जी के साथ पप्पू भैया की दुकान से खूब सारी बिस्किट लेकर आती थी ।
जब दादा जी नहीं रहे तो भंडारा में होली पर जाना भी बंद हो गया और
काजू बिस्किट का मिलना भी मुझे अक्सर यही लगता था कि वो काजू बिस्किट यहाँ दुर्ग
में नहीं मिलती है पर कल मेरे पापा बाज़ार गये तो उन्हें वो जीरे जड़े हुए वाली काजू
बिस्किट मिल गई तो पापा मेरे लिए ले आये उन्हें पता है कि यह बिस्किट देखते ही
मेरी खुशी दुगनी हो जाएगी ।
तो
लीजिए आप भी होली के पर्व पर जीरे जड़े वाली काजू बिस्किट लेकर आयें और उनके स्वाद
ले ।
13 टिप्पणियाँ:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01.03.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2896 में दिया जाएगा
धन्यवाद
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-03-2017) को "जला देना इस बार..." (चर्चा अंक-2897) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (02-03-2017) को "जला देना इस बार..." (चर्चा अंक-2897) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
रंगों के पर्व होलीकोत्सव की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मजेदार संस्मरण !
धन्यवाद गगन जी
शास्त्री जी मैं असमंजस में हूँ कि मेरी इस पोस्ट को दो बार प्राकशित किया जाएगा चर्चामंच में
।
1 व 2 मार्च दोनों में से कब होगा ।
अति सुंदर
धन्यवाद अजीत जी
शादी के बाद 1971 में शायद अप्रैल-मार्च में जब हमारा बड़ा बेटा 6-7 माह का था तब उसके दादाजी भी उसके लिये लाए थे तभी पहली बार हमने भी चखे। वाकई अच्छे लगते हैं।पर काजू सिर्फ शेप से थे। पर बहुत सुन्दर संस्मरणात्मक वर्णन।अपने पापा की तरह तुम्हारी शैली भी सरल वसहज है
शादी के बाद 1971 में शायद अप्रैल-मार्च में जब हमारा बड़ा बेटा 6-7 माह का था तब उसके दादाजी भी उसके लिये लाए थे तभी पहली बार हमने भी चखे। वाकई अच्छे लगते हैं।पर काजू सिर्फ शेप से थे। पर बहुत सुन्दर संस्मरणात्मक वर्णन।अपने पापा की तरह तुम्हारी शैली भी सरल वसहज है
धन्यवाद आँटी जी
ये सब पुरानी यादें वे अनमोल खजाना है जो हमें उस समय से जोड़कर रखता है
आपके इस संस्मरण ने बचपन की यादें ताजा कर दी । बचपन में मैंने भी खूब काजू वाली बिस्किट खाई और उसे खिलाने की शुरुवात हमारे भी दादा - दादी जी ने की थी ।
अरे वाह बबिता जी बहुत अच्छा लगा धन्यवाद
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