पान खाए दादा हमारे

       
  मेरे दादा जी दिवंगत श्री जगमोहन कोकास 
        मेरे दादा जी दिवंगत श्री जगमोहन कोकास को अपनी युवावस्था से ही पान खाने का बहुत शौक था यह शौक उनको उनके पुश्तैनी घर बैतूल से लगा था क्योंकि परिवार के अन्य सदस्य भी पान खाने का शौक रखते रखते थे इस खानदानी शौक में उनके पिता बाबूलाल जी वैद्य , चाचा बृजलाल , कुंदन लाल , सुन्दरलाल और बड़े भाई मनमोहन और मदनमोहन भी शामिल थे


     
        उन दिनों बैतूल के कोठी बाज़ार में रूपनारायण चौरसिया की पान की दूकान काफी प्रसिध्द थी उन्हें सब रुप्पन काका से नाम से जानते थे उनकी दूकान पर काँच के दो सारस रखे रहते थे  जो रंगीन पानी में चोंच डुबा डुबा  लगातार पानी पिया करते थे । बैतूल में बंधे हुए पान को कागज़ में लपेटकर नहीं बल्कि पलाश के पत्ते में रखा जाता था जिससे वह कई घंटो तक सूखता नहीं था 


     
    
        उनकी पान की दुकान पर कई तरह की तम्बाखू , सुरती , सुगन्धित चूर्ण और किवाम , लक्ष्मी टेबलेट , खुशबूदार चटनी , चमनबहार ,अलग - अलग नम्बर की जाफरानी , लौंग ,इलायची , पिपरमेंट , कच्ची भूंजी सुपारी ,चिप्स सुपारी,गीली सुपारी  और ना कितने तरह की चीज़े मिला करती थी  रुप्पन  काका ग्राहक को उसकी पसंद की अनुसार पान बनाकर देते थे . पान के पत्तों में मीठा पत्ता , कपूरी पान , बंगला पान बनाकर प्रचलित थे


      पान से वे बीमारियों का इलाज़ भी करते थे जैसे अगर कोई खांसी से त्रस्त ग्राहक आता था तो वे उसे पान के अंदर लौंग जलाकर तुरंत लपेट देते और धुंए को पान के अंदर कैद करके तुरंत खाने को कहते देते  कत्था बनाने के लिए वे दूध का इस्तेमाल करते थे .दूध में पकाया  हुआ कत्था घोलने पर उसका रंग चोकलेटी हो जाता था चूने के साथ मिलकर यह कत्था होंठो पर बहुत बढ़िया रचता था मेरे दादा जी ने इसी दुकान में पान खाना सीखा था


      दादा जी जब बैतूल के बाद पढ़ने के लिए बाहर निकले नागपुर के पॉलीटेक्नीक कॉलेज में आये तो उनका शौक कम हो गया फिर उनकी नौकरी शिक्षा विभाग में महाराष्ट के चान्दुर और उमरखेड  में रही उसके बाद वे भंडारा महाराष्ट में आ गये लेकिन वहां उनको बैतूल जैसा पान नहीं मिलता था इसलिए उन्होंने घर में पान का डिब्बा रखना शुरू किया


     
दादा जी का सरौता 
          दादा जी का पान का डिब्बा नक्काशीदार मुरादाबादी पीतल का था जिसे वे मुरादाबाद से लाए थे इस डिब्बे में तरह - तरह की चीजे रहती थी वे भूंजी सुपारी खाने के शौक़ीन थे भूंजी सुपारी लाते और सरोते से काटकर उसके छोटे - छोटे टुकड़े करते लेकिन सुपारी इतनी बड़ी होती थी कि सरोते की  दो धारों के बीच नहीं आती थी तब वे सुपारी को फर्श पर रखकर हथौड़ी से उसके टुकड़े करते फिर सुपारी से उसे कतरते .भूंजी सुपारी के ऊपर चूना लगा होता जिसे फोड़ते समय उनके हाथ भी सफेद हो जाते थे बाद में दांत कमजोर हो जाने पर उन्होंने भूंजी सुपारी की बजाए चिकनी सुपारी खाना शुरू किया कभी - कभी वे भरडा सुपारी भी खाते थे


मीठा पान 
    
कत्था 
     
कपूरी पान
       पान में उन्हें पका कपूरी पान पसंद था । पके हुए यह कपूरी पान का पत्ता सुनहरे रंग का होता था जिसमें आधा मीठा पान का पत्ता मिलाकर वे पान तैयार करते थे
 यह इतना बढ़िया पान होता था कि मुँह में रखते ही घुल जाता था । अब यह लगभग दुर्लभ पान है । उनके पान के डिब्बे में पोस्टर कलर की खाली  बोतल में घुला हुआ चूना , विक्स वेपोरब की खाली शीशी में घुला हुआ कत्था रहता था वे दूध में कत्था नही घोलते थे क्योंकि उसके जल्द खराब हो जाने की सम्भावना रहती थी उसे पानी में ही घोल लेते थे । उसके अलावा उनके पास सूखा कत्था रखने के लिए पीतल की एक सूखे कत्थे की कत्थादानी भी होती थी ,नमकदानी की तरह जिसके ऊपर छेद थे ।




      
       दादा जी हर इतवार और बुधवार गांधी चौक के पान बाजार से जहाँ बड़े बड़े बांस के टोकरों में पान रखे होते थे 20 कपूरी और 10 मीठा पत्ती पान लाते थे उसके साथ चूना मुफ्त मिलता था चूने को वे चूने की शीशी में डाल देते और पान को पानी की टंकी में उसके बाद उन्हें वे अच्छे से धोते थे और गीले बोरे के टुकड़े में लपेटकर रखते थे यह उनका पान रखने का फ्रीजर था



     
पिपरमेंट के क्रिस्टल 
        उनका पान बनाने का तरीका बहुत मजेदार था और पान बनाने में उन्हें पूरे 5 मिनट लगते थे पहले वे कपूरी पान का एक पत्ता निकालते फिर मीठे के पान के दो टुकड़े करके आधा पत्ता  उस पर रखते उसके बाद वे उस पर चूना लगाते . उन्होंने चूना लगाने के लिए स्टील के चम्मच की डंडी के पिछले हिस्से का आधा टुकड़ा डिब्बे में रखते थे और उसी से पान पर चूना और कत्था लगाते थे उसके बाद वे सुपारी को कतरकर छोटे - छोटे टुकड़े पान में डालते फिर इलायची को फोड़कर उसमें से चार दाने डालते फिर ठंडाई या पिपरमेंट के क्रिस्टल का छोटा सा टुकड़ा वे पान में डालते थे पिपरमेंट की शीशी को वे धागे से लेपटकर रखते थे ताकि गर्मी की वजह से पिपरमेंट उड़ ना जाए


            
चमनबहार नाम सुनते ही मन में चमनबहार सी की खुशबू आ गई 
        इस प्रकार का  पान सादा पान कहलाता था . लेकिन दादा जी को तो स्पेशल पान चाहिए होता था
अब वे इसके बाद चमनबहार की डिब्बी से रोज पाउडर छिड़कते थे वे जैसे छिड़कते थे उसकी खुशबू पूरे घर में फ़ैल जाती थी मैं दादाजी के पास जाती और अपना हाथ फैला देती और दादा जी मेरे नन्हे - नन्हे हाथों पर थोड़ी सी चमनबहार छिडक देते थे जिसे में चाटकर खाती थी अब मेरा दादा जी के साथ यह नियम बन गया था वे पान खाते थे और चमनबहार इसलिए दादा जी को समझ आ जाता था कि मैं उनके पास चमनबहार खाने आई हूँ तो वे बोलते थे पहले घुटने के बल जमीन पर बैठो और हमको मीठी - मीठी पप्पी दो फिर देंगे तुमको चमनबहार तो मैं ऐसा ही करती थी मुझे चमनबहार और उसकी डब्बी बहुत पसंद थी इसलिए दादा जी मुझे डब्बी या डिब्बी कहकर बुलाते थे दादा जी मुझे कभी अपना पान का डिब्बा छूने नहीं देते थे क्योंकि उन्हें डर रहता था कि अगर हम पान का डिब्बा खोलंगे तो चमनबहार खा लेंगे फिर ज्यादा चमनबहार खाना नुकसान करता है इसलिए वे देखते रहते थे कि पान का डिब्बा मैं खोल ना पाऊं और दादा जी चमनबहार की खाली डिब्बियां संभालकर मेरे रंगोली बनाने के लिए रंग रखने के लिए रखते थे और जब भी मैं दिवाली पर भंडारा आती तो दादी माँ मुझे वे डिब्बे रंग रखने के लिए दे देती थी


     
भंडारा में गांधी चौक में स्थित गोपाल जी का अमृत पान भंडार 
           इसके बाद वे लक्ष्मी टेबलेट पान पर डालते थे दादा जी को तम्बाखू खाने का भी शौक था उन्हें यह शौक तब लगा जब उन्हें दांत में दर्द शुरू हुआ उनसे किसी ने यह कहा कि दांत के दर्द में तम्बाखू खाने से दर्द ठीक हो जाता है दादा जी को तम्बाखू में गोडबोले जर्दा पसंद जो केवल भंडारा में ही मिलता था वे एक चुटकी जर्दा अपने पान में डालकर खाते थे कभी - कभी वे तम्बाखू थूकने के बजाए निगल लेते थे तो उन्हें हिचकी आती थी उनको हिचकी लेता देखकर हम लोगो को बड़ा मजा आता था हिचक - हिचक करते थे तो हम सब उनके पास जाकर हिचक - हिचक किया करते थे अपने जीवन के अंतिम दिनों में जब वे हमारे पास दुर्ग रहने आये तो तभी वे अपने साथ गोडबोले जर्दा तम्बाखू साथ ले आये करते थे वे दिन में चार से पांच बार पान खाया करते थे पहला सुबह चाय के बाद ,दूसरा सुबह के नाश्ते के बाद ,तीसरा दिन में खाने के बाद ,चौथा पान शाम की चाय के बाद और पांचवा अंतिम पान रात के खाने के बाद खाया करते थे


      दादा जी के बारे में एक बढ़िया किस्सा मेरे पापा सुनाते थे .उस जमाने में जब पैंसेजर ट्रेन चला करती थी तो दादा जी अपने परिवार सहित उसी ट्रेन में सफर किया करते थे  भीड़ भरे डिब्बे में वे घुस जाते और धीरे से अपना पान का डिब्बा कहीं रखकर खोलते फिर हथेली पर  पान का पत्ता रखकर पान बनाते तो ऐसे छोटे - छोटे पान बनाकर वे सहयात्रियों को खिलाते धीरे धीरे  सहयात्री उन्हें और परिवार को बैठने की जगह दे देते थे दादी माँ यह सारा नजारा देखते हुए पापा से कहती लो तुम्हारे बाबूजी की पान की दुकान यहाँ भी खुल गई और दादी माँ और बाक़ी सब हंसने लगते थे


     
बैतूल में लाला जायसवाल की दुकान पर अपने मित्र यशवंत भावसार और प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार चौबे  के साथ पापा तस्वीर लेते हुए 
     
केलाबाड़ी में स्थित विनोद पान भंडार 

            दादा जी के पान का डिब्बा घर में होने के बावजूद पापा को कभी पान खाने का शौक नहीं लगा हालांकि पापा कभी - कभी बैतूल में लाला जायसवाल की दुकान पर अपने मित्र यशवंत भावसार और अरुण कावले के साथ पान जरुर खाते थे दुर्ग के केलाबाड़ी मौहल्ले में रात को साहू पान ठेला या बिनोद पान भंडार की दुकान से रात के खाने के बाद खाया करते थे लेकिन दादा जी के सामने वे कभी पान नहीं खाते थे


    
        दादा जी के पान खाने का यह अनोखा शौक उनके जीवन के अंत समय तक कायम रहा  दादा जी की मृत्यु के समय उनका मुँह खुला रह गया था उनके अंतिम संस्कार से पहले भिलाई में रहने वाली सुशीला दादी ने मुझसे कहा कि बेटा दादा जी को पान बहुत पसंद था ना तो मैंने ने पान बनाया और उन्होंने पान में जैसे ही चमनबहार डाली तो मुझे बहुत तेज़ रोना आ गया कि अब मुझे कौन चमनबहार खिलायेगा और रोते हुए बनाया हुआ पान मैंने दादा जी के खुले हुए मुँह में अंतिम बार अपने हांथो से  रख दिया  


     
दुर्ग में दादा जी की फोटो के पास चमनबहार की छोटी डिब्बी 
        दादा जी के ना रहने के बाद हमने आज भी उनका सरोता , पान का डिब्बा संभाल कर रखा है और हमारे घर के हॉल में दादा जी की याद में उनकी फोटो के पास चमनबहार की छोटी डिब्बी रखी है जिसका ढक्कन खोलने पर उनकी यादों की खूशबू उड़ा करती है और उनका पान खाने का अनोखा अंदाज याद आ जाता है





47 टिप्पणियाँ:

शरद कोकास ने कहा…

दादा जी के अंतिम संस्कार के समय तुम्हारे द्वारा उनके मुँह में रखा वह पान का बीड़ा मुझे अभी तक याद है जो उनकी देह के साथ राख हो गया और शिवनाथ नदी के जल में समाहित होकर जाने कहाँ चला गया । इतने विस्तार से तुमने उनके पान खाने के शौक पर लिखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी है कि क्या कहूँ ....

राजेश शुक्ल RAJESH SHUKLA ने कहा…

एक बेहतरीन अभिव्यक्ति।

कोपल कोकास ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद राजेश जी

chaanakya ने कहा…

अद्भुत है ये किस्सा ,शब्दों न ऐसा समा बांधा है ऐसा लगा जैसे सब कुछ मेरे सामन ही घटिघ हुआ है।

कोपल कोकास ने कहा…

मुझे आज वह दिन बाद आ जाता है जब अंतिम बार पान खिलाया रोक नहीं पाई थी अपने आँसुओ को ।

यही तो मेरी श्रद्धांजलि है दादा जी के लिए आज भी बहुत याद आते हैं दादा जी औऱ उनका पान प्रेम

कोपल कोकास ने कहा…

जी चाणक्य जी

archanakshar ने कहा…

आदरणीय शरद जी की कलम से लिखे उनके संस्मरण आज भी जीवंत है ।दादाजी को श्रद्धांजलि देने और उन्हें याद करने का शरद जी का यह अंदाज़ निराला है ।आपकी सुन्दर लेखनी को और दादाजी की पुनीत स्मृति को हमारा भी सादर नमन ।

कोपल कोकास ने कहा…

अर्चना जी धन्यवाद पर यह संस्मरण मैंने यानि कि कोपल कोकास ने लिखा है मेरे पापा ने नहीं ।
दादा जी मेरे दादाजी है औऱ वह पापा के बाबूजी है ।

कोई बात नहीं धन्यवाद

Sarala Sharma ने कहा…

वाह! संस्मरण पढ़कर आँखें नम हो गईं , भाव , भाषा , प्रस्तुति का तालमेल सराहनीय है । लिखती चलें कोंपल भविष्य पुकार रहा है ।

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद सरला जी

Dr JYOTSNASINGH ने कहा…

स्मृतियों को सहेजना और प्रस्तुत करना एक कला हैरचनाकार ने इस कला भरपूर इस्तेमाल किया।बहुत सुन्दर प्रस्तुतीकरण

Dr JYOTSNASINGH ने कहा…

स्मृतियों को सहेजना और प्रस्तुत करना एक कला हैरचनाकार ने इस कला भरपूर इस्तेमाल किया।बहुत सुन्दर प्रस्तुतीकरण

Unknown ने कहा…

कोपल पहले के समय में प्रायः सभी घरों में पान का मुरादाबादी डिब्बा होता था । हम पान नहीं खाते थे पर हमारे श्री मान जी को सुबह शाम दो पान घंटों मुंह में रखकर खाने की आदत थी।जो हमें पसंद नहीं थी फिर बस रात का पान बचा जो कभी-कभी पर आगया। हर बार डिलेवरी के बाद मायके में पिताजी और ससुराल में सास खाने के बाद पान बना कर देते थे। अब महिनों गुजर जाते हैं। तुमने बहुत सुन्दर संस्मरण की तरह वर्णन किया है। बहुत कुछ बीता याद आ गया।हर बार तुम्हारी लेखनी कुछ न कुछ सिखाती है पर अबकी बार यादें ताजा कर गई। और हाँ चमन बहार की डिब्बी हमारे यहाँ भीरहती थी। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ

Unknown ने कहा…

कोपल पहले के समय में प्रायः सभी घरों में पान का मुरादाबादी डिब्बा होता था । हम पान नहीं खाते थे पर हमारे श्री मान जी को सुबह शाम दो पान घंटों मुंह में रखकर खाने की आदत थी।जो हमें पसंद नहीं थी फिर बस रात का पान बचा जो कभी-कभी पर आगया। हर बार डिलेवरी के बाद मायके में पिताजी और ससुराल में सास खाने के बाद पान बना कर देते थे। अब महिनों गुजर जाते हैं। तुमने बहुत सुन्दर संस्मरण की तरह वर्णन किया है। बहुत कुछ बीता याद आ गया।हर बार तुम्हारी लेखनी कुछ न कुछ सिखाती है पर अबकी बार यादें ताजा कर गई। और हाँ चमन बहार की डिब्बी हमारे यहाँ भीरहती थी। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद ज्योत्स्ना जी

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद नीलिमा आँटी जी । यादें ऐसी ही तो याद आती है जब वो लम्हें गुज़र जाते हैं तो यादे औऱ तेज़ याद आती है मानो ऐसा लगता है कि अभी अभी वो सब कुछ हमारी आँखों के समक्ष घटित हो रहा है ।

लिखते हुए मुझे भी कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा था जिसे मैं उस कालखंड में पहुंच गई जब वह सब घटित हुआ था ।
आपका आशीर्वाद बना रहे ।

कोपल कोकास ने कहा…

जी नीलिमा आँटी जी मैंने वह नक्काशीदार मुरादाबादी पान का डिब्बा देखा गया है इस वक्त वह मेरे पास तो नहीं है परंतु वह हमारे ददिहाल वाले घर में है ।

Ajay jadaun ने कहा…

बहुत ही सुमधुर यादें आपने साझा की

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद अजय जी

Narendrapal jain ने कहा…

वाहह। अद्भुत, अनुपम

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद unknown जी

Mahendra Kumar ने कहा…

एक ज़माने में मैं भी गिलौरी पान खाने का आदि था। इस आलेख ने उन दिनों की याद ताज़ा कर दी। वाह! अदभुत।

रज़िया ने कहा…

वाह!बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।

Sachin tyagi ने कहा…

बहुत सुंदर यादें थी ,पढ़ कर मैं भी लगभग आपके दादा केके नजदीक पहुंच गया। काश उस पानदान के भी दर्शन हो पाते।

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद महेन्द्र जी

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद शेख जी

कोपल कोकास ने कहा…

जी धन्यवाद सचिन जी ।
जी अवश्य उस पानदान की फ़ोटो शेयर करुँगी

Unknown ने कहा…

अद्भुत संस्मरणात्मक शैली की किस्सागोई जो पुराने दिनों की स्मृति को जीवंत करता है ।स्मतियाँ ही तो धरोहर होतीं हैं पीढ़ी की विशेषता को संजोये हुए।इस अनुपम संस्मरण को पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार ।

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद जी

Pravin Kumar ने कहा…

आपने इतना अच्छा लिखा है कि कुछ लम्हे के लिए ऐसा लगा मानो मैं अपने पिताजी के साथ बैतूल में रूपनारायण चौरसिया की पान-दूकान के पास खड़ा हूं, वहीं आपके दादा जी भी अपने लिए कपूर पान लगवा रहे हैं। मैं तो पान नहीं खाता, लेकिन पिताजी इसके बेहद शौक़ीन हैं, ख़ासकर मगही पान के।
इससे अच्छी श्रद्धांजलि नहीं हो सकती थी। आज वो होते तो यक़ीनन पूरी की पूरी चमनबहार की डिब्बी आपको दे देते इस अविस्मरणीय शब्दचित्र को पढ़कर।

कोपल कोकास ने कहा…

बहुत अच्छा लगा प्रवीण जी
आपकी टिप्पणी ने मुझे रुला ही दिया कि इस वक़्त दादा जी होते तो पूरी चमनबहार की डिब्बी मेरे हाथ में दे देते औऱ वैसे ही घुटनों के बल बैठकर मांगने को कहते ।

घर पर रखी चमनबहार की डिब्बी को देखकर प्रवीण जी यही सोचती हूँ काश दादा जी पास होते तो खिलाती उन्हें अपने हाथ बनाकर पान ...

nand ने कहा…

पान का शौक मुझे भी घर से ही हुआ था, घर में पानदानी थी,एक सुंदरी सुर्ती तंबाकू का डिब्बा भी होता था,घर में साल में चंद दिन ऐसे होते थे जैसे दशहरा पूजा नवरात्र की अष्टमी या सत्यनारायण की पूजा जब प्रसाद के रूप में पान का बीड़ा मिल जाता था जिसे थूकने की मनाही थी, पिताजी शिक्षक थे और उनके सभी मित्र पान के शौकीन थे, और चूंकि हमारा शहर में होते हुए भी ग्रामीण माहौल वाला था दादाजी दो भाईयों के पास लगभग पचास एकड़ जमीन और लगभग सारे फलों के वृक्षों सहित सब्जियों की खेती, तो साप्ताहिक छुट्टियों में मित्रों की महफ़िल घर के दूध की चाय,( मैंने चाय पीना कालेज के दिनों में शुरू किया, हमारे घर में चाय सिर्फ मेहमानों के लिए बनती थी, हमें दूध पीना पड़ता था) और फिर पानदानी के साथ शुरू होता था पान बनाने का सिलसिला,

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद नन्द जी

Unknown ने कहा…

भावों के धनी, शब्दों के माली ।
साहित्य की धरा को वंदन ।

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद शरद जी

कोपल कोकास ने कहा…

सबकी आँखे नम हो जाती अगर मैं वह तस्वीर यहाँ लगा देती जब अंतिम बार मैंने दादा जी के मुँह में अपने हाथ से बनाया हुआ पान का बीड़ा रखा था उनके अंतिम दिन उनकी तस्वीर निकाली थी किसी ने . आज उन तस्वीरों को देखा तो सोचा आंसू रुक नहीं निकलेगे पर क्या कहूं एक पोती का दिल है ना मेरा नहीं रुक पाएं और झर - झर आँखों से अश्रुधारा बह निकली मानो लगा मैं वो 13 साल की कोपल हूँ जो दादा जी की अर्थी के पास बैठी हूँ ... आज भी नहीं रुकते आज भी बहुत याद आते है दादा जी .....

कोपल कोकास ने कहा…

यह तो बस पोस्ट लिखकर दादा जी को श्रद्धांजलि दी है ज़रा सोचिये उस वक्त क्या बीत रही होगी मुझ पर जब यह मुझ मासूम सी 13 साल की लड़की के सामने घटित हो रहा होगा जिसने अपनी दादी माँ की अर्थी के बाद दादा जी अर्थी देखी हो ... शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है

बहुत मुश्किल है जब आपके सर से इतना लाड़ दुलार करने वाले दादा दादा का हाथ हमेशा के खो जाए ....

बजरंग बिहारी ने कहा…

दादा जी के पान खाने के शौक पर लिखते हुए आपने तो सांस्कृतिक इतिहास का एक अध्याय ही लिख दिया है!
साधुवाद स्वीकारें।

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद बजरंग जी

Neelam Jaiswal ने कहा…

बहुत बढ़िया संसमरण,पढ़कर महसूस हुआ जैसे सब कुछ आखों के सामने गुजरा हो..। कोपल जी को शुभकामनाएँ।

Dr.Manikvishwakarma'navrang' ने कहा…

रोचक एवं संग्रहणीय संस्मरण।

Unknown ने कहा…

मेरी ससुराल में सभी को पान खाने का बेहद शौक है।मेरे विवाह में मायके की सभी दुकानों पर पान खत्म हो गये थे क्योंकि माता पिता को ससुराल वालों के इस शौक का पता नहीं था।मारी बड़ी बेटी की शादी भिलाई दुर्ग में हुई थी।मेरे सबसे छोटे देवर ने सबको पान बनाकर खिलाये थे।हम पहले पुरानी दिल्ली रहते थे।बाद में विकासपुरी आ गये।कई वर्षों बाद एक शादी में जाना हुआ।रात को जिस दुकान से पान लिया,वह दुकानदार फौरन पहचान गया और बोला कि बाऊ जी!आज कई साल के बाद आ रहे हो।
मेरे पास अभी भी अपनी सास का मुरादाबादी पानदान और सुरती उनकी यादगार के रूप में रखी है।

Unknown ने कहा…

मेरा नाम unknown नहीं,राधा गोयल है और मेरा ई मेल आई डी है
radhagoyal222@gmail.com

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद नीलम जी

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद मानिक जी

कोपल कोकास ने कहा…

आपने जिस दिन टिप्पणी की है 28 अगस्त उस दिन दादा जी की पुण्यतिथि है

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