जज्बा ,जोश ,साहस , हिम्मत कहता है कहानी पर्वतारोही अरुणिमा सिन्हा ही

           
     जब ह्यूमन डेवलपमेंट विषय में एम् .एस.सी कर रही थी तब हमारा एक विषय था disabiltiy इन children इसके अंतर्गत हम बच्चों में जो निर्योग्य्ताएं होती है उनके बारे में विस्तार से अध्ययन करते थे कभी किसी विकलांग व्यक्ति  के बारे में , कभी जो व्यक्ति सुन नहीं सकता बोल नहीं सकता जिसे दिखाई नहीं देता , या वो पढ़ाई में पिछड़ा है , मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है , और भी अन्य कई निर्योग्यताओ के बारे में हमने अध्ययन किया था

            मेरे इसी विषय की परीक्षा थी और मैं तब वाकई यह नहीं जानती थी कि अरुणिमा सिन्हा कौन है उनके बारे में ज्यादा नहीं जानती थी उस वक्त मेरा एक प्रोजेक्ट था जो मुझे बनाकर देना था जिसमें ऐसे वो व्यक्ति जो बहुत प्रसिध्द हो और वे किसी किसी निर्योग्यता से ग्रसित हो उन पर लिखना था तब मैंने नेट पर सर्च किया , कई किताबें पढ़ी , अपनी टीचर से इसके बारे में बातें की फिर मैंने अरुणिमा सिन्हा के बारे में लिखा और एक दो और व्यक्तियों के बारे में लिखा जिसमें मुझे प्रैक्टिकल एग्जाम में बहुत अच्छे मार्क्स मिले थे क्योंकि मेरा सेमीनार प्रोजेक्ट बहुत बढ़िया बना था

             जब मैंने लिखा तब मुझे पता चला कि हिमालय की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर विजय पताका फहराने वाली अरुणिमा सिन्हा है जिनका हौसला जिनकी यह घटना उनके साहस और जुनून की कहानी बताती है कि वे कितनी हौसलों से भरी हुई है ..

   देखने में बेहद साधारण नाकनक्श वाली छोटी सी लड़की, लेकिन चेहरे पर पहाड़ जैसी दृढ़ता। जैसे ही वह सामने आई मुझे समझ गया कि यही है अरुणिमा जिसने अपने काम से पूरे देश की लड़कियों को एक सीख-एक सबक दिया है। यही है वह अरुणिमा जिसने एक पैर के कटने के बावजूद बेचारी बनकर जि़ंदगी गुजारना गवारा नहीं किया। पैर के कटने के साथ ही उसने तय कर लिया कि उसे जि़ंदगी यूं ही नहीं गुजारनी, कुछ कर दिखाना है। सिर्फ अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने प्रदेश- अपने देश की बहुत सी लड़कियों का भाग्य भी बनाना है।

         उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर निवासी अरुणिमा सिन्हा ने यह बात साबित की है कि 'हौसला हो तो कुछ भी असंभव नहीं है।' अरुणिमा का एक पैर नहीं है और दूसरे पैर में स्टील की कई रॉड पड़ी हैं। ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब अरुणिमा ने दुनिया की सबसे ऊंची एवरेस्ट चोटी फतह की थी लेकिन उसके बाद भी उन्हें तसल्ली नहीं हुई और वे निकल पड़ी एक और चोटी को जीतने। एवरेस्ट के बाद तंजानिया के किलिमंजारो और अब रूस में स्थित चोटी एलब्रुस पर भारतीय झंडा फहरा दिया है उन्होंने। खास बात यह थी कि इस बार वह टीम का नेतृत्व स्वयं कर रही थीं। ये जज़्बा, ये जोश और ये जुनून किसी-किसी में ही होता है। अब अरुणिमा का लक्ष्य है सात महाद्वीपों की सबसे ऊंची सात चोटियाँ। हालांकि वे कहती हैं, 'इसके पीछे मेरा मकसद प्रशंसा पाना या फिर कोई रिकॉर्ड बनाना नहीं है। मैं तो अपने देश की पिछड़ती हुई लड़कियों में नये जोश और हिम्मत का संचार करना चाहती हूं। मैंने खुद अपने अंदर जो आत्मविश्वास- जो बदलाव महसूस किया है, मैं वही बदलाव और आत्मविश्वास अपने देश की सभी ऐसी लड़कियों में देखना चाहती हूं जो खुद को कुछ नहीं समझती हैं। वे खुद नहीं जानती कि उनमें कितना कुछ है। वे क्या नहीं कर सकतीं।"

          राष्ट्रीय स्तर पर बॉलीवॉल खेलने वाली अरुणिमा सिन्हा को अप्रैल 2011 में गुंडों ने चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया था। इस हादसे में उनका बायां पैर बुरी तरह जख्मी हो गया था। हादसे को याद करते हुए अरुणिमा गंभीर हो जाती हैं, 'मैं पटरियों के बीच कटी टांग के साथ सारी रात पड़ी रही। कैसे बेहोशी की सी हालत में रात गुजरी। भगवान की कृपा है जो मैं सुबह तक ऐसी हालत में रही कि सुबह वहां आए लोगों को अपने घर का फोन नम्बर बता सकी। मुझे जिस अस्पताल में ले गए वहां बेहोशी के बावजूद मैं डॉक्टरों की बातें सुन पा रही थी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि इतने इंफेक्शन के चलते वे क्या करें। वहां ऐनेस्थीसिया तक की सुविधा नहीं थी। तब तक मेरे घर से कोई वहां नहीं पहुंचा था। तब मैंने ही जोर देकर कहा कि मुझे बेहोश किए बिना मेरा पैर काट दें। शायद उन्हें मेरी हिम्मत देखकर अच्छा लगा, अस्पताल के एक फार्मासिस्ट और एक डॉक्टर ने अपना खून देकर मेरी जान बचाई।" अरुणिमा की रीढ़ की हड्डी में भी तीन फैक्चर पाए गए थे। उनके दाएं पैर की भी दो हड्डियां टूटी थी जिन्हें ठीक करने के लिए कुछ दिन बाद ऑपरेशन किया गया।

         अरुणिमा अपनी उपलब्धियों का श्रेय एवरेस्ट फतह करने वाली पहली भारतीय महिला बछेन्द्री पाल को देती हैं। वे कहती हैं, "मैडम मेरे लिए एक देवी के समान हैं। उन्होंने जो मेरे लिए किया है और दूसरी लड़कियों के लिए कर रही हैं, वैसा बहुत कम इंसान किसी के लिए करते हैं।" अरुणिमा की ही हिम्मत थी, जिसे देखकर बछेन्द्री पाल भी दंग रह गई थीं। अरुणिमा बताती हैं कि उस भयानक हादसे के बाद अस्पताल में पड़े-पड़े कैसे उन्होंने मन ही मन एवरेस्ट को फतह करने की ठान ली थी। इसी जुनून को पूरा करने के लिए किसी तरह उन्होंने बछेन्द्री पाल का फोन नम्बर हासिल कर उनसे बात की। अगले ही दिन अस्पताल से अपने घर जाकर उनसे मिलने सीधे जमशेदपुर जा पहुंची। जब बछेन्द्री पाल को पता लगा कि कल रात जो लड़की दिल्ली के एम्स से उनसे बात कर रही थी, वह सुबह जमशेदपुर के रेलवे स्टेशन से फोन कर रही है तो उन्हें उसके जुनून को मानना ही पड़ा। वे तभी समझ गई थीं कि यह लड़की जरूर कुछ कर दिखाएगी।

          फिर बछेन्द्री पाल की ट्रेनिंग में अरुणिमा ने उत्तरकाशी में 'टाटा स्टील एडवेंचर फांउडेशन शिविर' में भाग लिया। वे बताती हैं, 'ट्रेनिंग के दौरान जब मैंने पहाड़ चढऩा शुरू किया, तब मैं धीरे-धीरे चढ़ पाती थी। मेरे साथी मुझसे कहते, हम आगे चल रहे हैं, तुम धीरे-धीरे आराम से जाना। तब मुझे बहुत बुरा लगता था लेकिन कुछ ही महीनों के बाद हालात इतने बदल गए थे कि मैं ऊपर सबसे पहले पहुंच कर बाकी लोगों का इंतजार किया करती थी। तब सभी लोग मुझसे पूछते थे कि मैं खाती क्या हूं।"

           इसके बाद जब अरुणिमा ने एक ही पैर के साथ एवरेस्ट की चढ़ाई पूरी कर ली तो लोगों को उनकी इच्छाशक्ति को मानना ही पड़ा। इसी के साथ अंग गंवाकर एवरेस्ट पर पहुंचने वाली पहली भारतीय बन गई। आजकल अरुणिमा सात चोटियों को फतह करने के अपने जुनून के साथ-साथ खेलों में और पर्वतारोहण के क्षेत्र में कुछ और बच्चों को भी तैयार कर रही हैं। इसे भी हिम्मत ही कहेंगे कि उनकी खुद भी पैरालम्पिक में 100 मीटर की रेस के लिए भी तैयारी कर रही है। उनको बीवीजी (भारत विकास ग्रुप इंडिया) स्पॉन्सर कर रहा है। वे कहती हैं कि मेरे पास ज्यादा तो कुछ नहीं है लेकिन जो भी है उससे अगर मैं जरूरतमंद बच्चों के कुछ भी काम सकी तो अपने जीवन को सार्थक समझूंगी। इसके अलावा वे लखनऊ में एक स्पोर्टस एकेडमी भी बनाने की कोशिश कर रही हैं, जिसमें विकलांग और गरीब बच्चों को खेलों के क्षेत्र में बढ़ावा दिया जाएगा।

              जब मैंने अरुणिमा के जीवन की इन घटनाओं को उस वक्त लिखा था तब मुझे यही लगा था कि किसी व्यक्ति में यदि कुछ करने का जज्बा हो , हौसला हिम्मत , जोश हो इच्छा हो तो चाहे एक पैर ना हो तो क्या हुआ जब हम अपने लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढ़ जाए तो हम विजय पताका लहरा के ही रहते है फिर मंजिल का रास्ता पहाड़ जितना कठिन ही क्यों ना हो


2 टिप्पणियाँ:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-02-2017) को "नागिन इतनी ख़ूबसूरत होती है क्या" (चर्चा अंक-2894) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कवि जीतेन्द्र कानपुरी ने कहा…

बहुत ही अच्छा हौसला था इस बहन का
बहुत बहुत धन्यवाद

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