विक्रम संवत् की शुरुआत करने वाले राजा विक्रमादित्य

     
सम्राट विक्रमादित्य 

 विक्रम संवत अनुसार विक्रमादित्य आज से (12 जनवरी 2016) 2287 वर्ष पूर्व हुए थे। विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। -विक्रमादित्य उज्जैन नगरी के अनुश्रुत राजा थे , राजा विक्रम अपने ज्ञान , वीरता और विद्वान नीतियों उदारशीलता के लिए बहुत प्रसिध्द थे भी विक्रम, और विक्रमरका के नाम से भी जाने जाते थे. विक्रमादित्य के नाम , काम और विषयों को लेकर इतिहासकार कभी एक मत नहीं रहे कुछ महानुभावो ने विक्रमादित्य को मलेच्चा आक्रमंकारियो से भारत का परिमोचन कराने वाला भी बताया. इसके साथ ही इस महान शासक को शाकरी की उपाधि भी दी गयी थी. विक्रमादित्य इतने महान थे उनके नाम बाद के राजाओं और सम्राटों के लिए एक पदवी और उपाधि बन गया
      महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है। उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। नौ रत्नों की परंपरा उन्हीं से शुरू होती है
     हिन्दू धर्म के शिशुओ के विक्रम नाम विक्रमादित्य की लोकप्रियता और उनके जीवन के लोकप्रिय लोक कथाओं के कारण दिया जाता है विक्रमादित्य के महानता और उनके पराक्रम की 150 से भी ज्यादा कहानिया है
      विक्रमादित्य की गाथा बहोत से राजाओ से जुडी हुई ही जिसमे मुख्य रूप से जैन शामिल है. लेकिन कुछ दंतकथाओ के अनुसार उन्हें शालिवाहना से हार का सामना करना पड़ा था. विक्रमादित्य ईसा पूर्व पहली सदी के है. कथा सरितसागर के अनुसार वे उज्जैन के परमार वंश के राजा के पुत्र थे. हालाँकि इसका उद्देश बाद में 12 वी शताब्दियों में किया गया था
     
राजा विक्रम का मन्दिर 
विक्रमादित्य /
Raja Vikramaditya का गुप्त वंश (240-550 CE) के पहले काफी उल्लेख किया जाता है. ऐसा माना जाता है की गुप्त वंश आने के पहले विक्रमादित्य ने ही भारत पर राज किया था. इसके अलावा अन्य स्त्रोतों के अनुसार विक्रमादित्य को दिल्ली के तुअर राजवंश का पूर्वज माना जाता था. विक्रमादित्य माँ हरसिद्धि के भक्त थे। उनकी एक मूर्ति हरसिद्धि के समीप है। विक्रमादित्य के साथ कई लोक कथाएँ जुड़ी हुई हैं। उन्होंने माँ हरसिद्धि को प्रसन्न करने के लिए अपना शीष अर्पित कर दिया था।
     महान विक्रमादित्य के पराक्रमो को प्राचीन काल में ब्रिहत्कथा कर गुनाध्या में बताया गया है. विक्रमादित्य के अवशेषों को ईसा पूर्व पहली सदी और तीसरी सदी के बीच देखा जा सकता है. उस काल में उपर्युक्त पिसाची भाषा आज हमें दिखाई नही देती
कष्ट जानने के लिए रात में भ्रमण
     राजा विक्रमादित्य के बारे यह कहा जाता है की राजा एक श्रेष्ठ और न्यायपूर्ण shaasn का व्यव्स्थाप भी थे जनता के कष्टों को जानने और राजकाल की पड़ताल के लिए राजा विक्रमादित्य छदमवेश धारण करके रात में भ्रमण करते थे राजा विद्या और संरक्षक के संरक्षक भी थे

भारी - भरकम सोना -
     विक्रमादित्य ने मालवा , उज्जैन और भारतभूमि को विदेशी शकों से मुक्तकर स्वतन्त्रता संग्राम का शंखनाद किया था राजा विक्रमादित्य की सेना में तीन करोड़ पैदल सैनिक , 10 करोड़ अश्व २४६०० गज और चार लाख नौकाएं थी 5 करोड़ अश्वारोही सैनिक थे  20 लाख जहाज थे
     
राजा विक्रमादित्य के नवरत्न 
      विक्रमादित्य से सम्बंधित काफी कथा-श्रुंखलाये है
, जिसमे बेताल बत्तीसी काफी विख्यात है. इसके हमें संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओ में कई रूपांतरण मिलते है. इन कहानियो के रूपांतरण हमें कथा-सरितसागर में मिलते है. सम्राट विक्रमादित्य के की राज्यसभा में नवरत्नकहलाने वाले नौ विद्वान थे. वे थे-1. धनवंतरी, 2. क्षपणक, 3. अमरसिंह, 4.शंकु भट्ट, 5. वेताल भट्ट, 6. घटकर्पर, 7. वाराहमिहिर, 8. वररुचि, 9. कालिदास (संस्कृत के प्रसिद्ध कवि)। रुद्रसागर में कुछ रत्न हैं, इन सभी के भुत से ग्रन्थ काफी महत्वपूर्ण रहे है और आज भी भारतीय परम्परा को प्रभावित कर रहे है
     विशाल सिद्धवट वृक्ष के नीचे बेताल साधना द्वारा विक्रमादित्य ने अलौकिक प्राकृतिक शक्तियाँ प्राप्त की थी। विक्रम-बेताल की चर्चित कहानियाँ उनकी इस शक्ति के विषय में समुचित प्रकाश डालती हैं। विक्रमादित्य का सिंहासन अतुलनीय शक्तियों वाला सिंहासन, जो उन्हें भगवान इन्द्र ने दिया था ।
     विक्रमादित्य के पश्चात यह सिंहासन लुप्त हो गया था। यह राजा भोज के शासनकाल में मिला और इस पर उन्होंने बैठने का प्रयास किया। सिंहासन में विराजमान शक्तियों ने राजा भोज की योग्यता को परखा और अंतत: उस पर बैठने की अनुमति दी। सिंहासन बत्तीसीमें इससे संबन्धित कथाएँ हैं ।

     महान योध्दा - कहा जाता है उज्जैन में विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि और भट्टि राजा विक्रमादित्य के बड़े और छोटे भाई थे। राजपाठ छोड़कर भर्तृहरि योगी बन गये। भट्टि भी माता हरसिद्धि के भक्त थे। कहा जाता है कि भट्टी और विक्रमादित्य ने लम्बे समय तक एक वर्ष को आधा-आधा साझा करते हुए शासन किया। भर्तृहरि ने शासन छोड़ दिया तब शकों ने शान की बागडोर अपने हाथ में लेकर कुशासन क्र आतंक मचाया ईसा पूर्व ५७ -६८ में विक्रमादित्य ने विदेशी शासक शकों को परस्त कर मालवगण के महान योध्दा बने  
    अनुश्रुत विक्रमादित्य, संस्कृत और भारत के क्षेत्रीय भाषाओं, दोनों में एक लोकप्रिय व्यक्तित्व है। उनका नाम बड़ी आसानी से ऐसी किसी घटना या स्मारक के साथ जोड़ दिया जाता है, जिनके ऐतिहासिक विवरण अज्ञात हों, हालांकि उनके इर्द-गिर्द कहानियों का पूरा चक्र फला-फूला है।  
    संस्कृत की सर्वाधिक लोकप्रिय दो कथा-श्रृंखलाएं हैं वेताल पंचविंशति या बेताल पच्चीसी ("पिशाच की 25 कहानियां") और सिंहासन-द्वात्रिंशिका ("सिंहासन की 32 कहानियां" जो सिहांसन बत्तीसी के नाम से भी विख्यात हैं)। इन दोनों के संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं में कई रूपांतरण मिलते हैं।
    
विक्रम और बेताल 
पिशाच (
बेताल) की कहानियों में बेताल, पच्चीस कहानियां सुनाता है, जिसमें राजा बेताल को बंदी बनाना चाहता है और वह राजा को उलझन पैदा करने वाली कहानियां सुनाता है और उनका अंत राजा के समक्ष एक प्रश्न रखते हुए करता है। वस्तुतः पहले एक साधु, राजा से विनती करते हैं कि वे बेताल से बिना कोई शब्द बोले उसे उनके पास ले आएं, नहीं तो बेताल उड़ कर वापस अपनी जगह चला जाएगा. राजा केवल उस स्थिति में ही चुप रह सकते थे, जब वे उत्तर न जानते हों, अन्यथा राजा का सिर फट जाता. दुर्भाग्यवश, राजा को पता चलता है कि वे उसके सारे सवालों का जवाब जानते हैं; इसीलिए विक्रमादित्य को उलझन में डालने वाले अंतिम सवाल तक, बेताल को पकड़ने और फिर उसके छूट जाने का सिलसिला चौबीस बार चलता है। इन कहानियों का एक रूपांतरण कथा-सरित्सागर में देखा जा सकता है।
32 पुतलियों की कहानी सिंहासन बत्तीसी 
    सिंहासन के क़िस्से, विक्रमादित्य के उस सिंहासन से जुड़े हुए हैं जो खो गया था और कई सदियों बाद धार के परमार राजा भोज द्वारा बरामद किया गया था। स्वयं राजा भोज भी काफ़ी प्रसिद्ध थे और कहानियों की यह श्रृंखला उनके सिंहासन पर बैठने के प्रयासों के बारे में है। इस सिंहासन में 32 पुतलियां लगी हुई थीं, जो बोल सकती थीं और राजा को चुनौती देती हैं कि राजा केवल उस स्थिति में ही सिंहासन पर बैठ सकते हैं, यदि वे उनके द्वारा सुनाई जाने वाली कहानी में विक्रमादित्य की तरह उदार हैं। इससे विक्रमादित्य की 32 कोशिशें (और 32 कहानियां) सामने आती हैं और हर बार भोज अपनी हीनता स्वीकार करते हैं। अंत में पुतलियां उनकी विनम्रता से प्रसन्न होकर उन्हें सिंहासन पर बैठने देती हैं।
    नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है। विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। राजा विक्रम का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
राजा विक्रम के नाम पर विक्रम संवत् 
विक्रम संवत
अपने शासन में राजा विक्रम ने समय की गणना करने के लिए विक्रम संवत आरम्भ किया जिसे संवत् या विक्रम युग कहा जाता है , ईसा पूर्व ५६ शकों पर अपनी जीत के बाद राजा विक्रम ने इसकी शुरुआत की थी जिसे आज भी उज्जैन में काल की गणना करने के लिए प्रयोग किया जाता है और यह भारत और नेपाल की हिंदू परंपरा में व्यापक रूप से प्रयुक्त प्राचीन पंचाग हैं उनकी महान गथाओ और प्रसिद्धि और पराक्रम को देखते हुए ही उनके काल को विक्रम संवतका नाम दिया गया
    विक्रम संवत में विक्रमादित्य के पराक्रमो के आस-पास के शासक भी चीर परिचित थे. वे राजा विक्रमादित्य से काफी प्रभावित हुए थे और कइयो ने तो उन्हें अपना आदर्श भी मान लिया था. विक्रमादित्य के शासनकाल को भारतीय इतिहास के स्वर्णिम युगों में याद किया जाता है
 

नीचे बैठे हुए लास्ट से 12 नम्बर पर वाईट शर्ट में बैठे हुए मेरे पापा श्री . शरद कोकास 
उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य के नाम पर ही विक्रम विश्वविधालय बना है इसकी स्थापना 1 मार्च 1957 को हुई। यह विश्वविद्यालय मध्य प्रदेश के सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में से एक माना जाता है। मेरे खुशी बात है की मेरे पिता श्री शरद कोकास ने इसी विक्रम विश्वविद्यालय प्राचीन भारतीय इतिहास में एम. ए में गोल्ड मेडल प्राप्त किया है