दादा जी के नमकीन काजू वाली बिस्किट

           
 जीरे जड़ी हुई नमकीन काजू बिस्किट 
              होली रंगो का त्यौहार आने वाला है जब मेरे दादा जी भंडारा में रहते थे और हम लोग दुर्ग में तब होली के त्यौहार की छुट्टियों में अक्सर घर चले जाते थे अपनों के बीच ही तो त्योहारों का मजा आता है इस त्यौहार पर मेरे दादा जी रंगो के साथ - साथ एक ख़ास बिस्किट साथ लाते थे काजू के आकार वाली बिस्किट जो नमकीन होती थी और उसमें बाहर जीरे लगे होते थे

             मेरे आने के पहले दादा जी पड़ोस के पप्पू भैया की दुकान से जाकर जीरे जड़े हुए वाली काजू बिस्किट जरुर लाकर रख लेते थे वो पप्पू भैया भी समझ जाते थे अच्छा दादा जी की पोती आई है तभी वे यह बिस्किट लेकर जा रहे है दादा जी भी यह बात अच्छी तरह ऊपर के खाने में मतलब शेल्फ में स्टील के बड़े से डिब्बे की और नजर जरुर जायेगी और मैं जरुर पूछूगी कि दादा जी काजू वाले बिस्किट लाये कि नहीं

             मेरे पूछने के पहले ही दादा जी कांच के सफेद रंग वाली कब्ब्शी ( प्याले ) में बहुत सारी बिस्किट लाकर दे देते थे पर मुझे ज्यादा बिस्किट खाने नहीं मिलती थी क्योंकि दादा जी कहते थे ज्यादा बिस्किट खाने से दांत खराब हो जाते है इसलिए दादा जी डिब्बा बदल देते मैं बहुत सारे बिस्किट मांगूगी इसलिए वो हर बार डिब्बे बदल देते थे पर मुझे पता चल ही जाता था कि इसी डिब्बे में रखे है काजू वाले बिस्किट

            यह जीरे जड़े हुए काजू वाले बिस्किट ही मेरा दादा जी की तरफ से होली का उपहार होते थे एक - एक काजू उठाकर खाने में बहुत आनन्द मिलता था नमकीन बिस्किट और उस पर जीरा का तीखा स्वाद एक अलग ही स्वाद हो जाता था जीभ का

            कभी - कभी ऐसा भी होता था कि दादा जी भूल जाते थे कि कोपल के लिए काजू बिस्किट लाना है तो मैं दादा जी के साथ पप्पू भैया की दुकान से खूब सारी बिस्किट लेकर आती थी

           जब दादा जी नहीं रहे तो भंडारा में होली पर जाना भी बंद हो गया और काजू बिस्किट का मिलना भी मुझे अक्सर यही लगता था कि वो काजू बिस्किट यहाँ दुर्ग में नहीं मिलती है पर कल मेरे पापा बाज़ार गये तो उन्हें वो जीरे जड़े हुए वाली काजू बिस्किट मिल गई तो पापा मेरे लिए ले आये उन्हें पता है कि यह बिस्किट देखते ही मेरी खुशी दुगनी हो जाएगी

                तो लीजिए आप भी होली के पर्व पर जीरे जड़े वाली काजू बिस्किट लेकर आयें और उनके स्वाद ले

                       

                       


पान खाए दादा हमारे

       
  मेरे दादा जी दिवंगत श्री जगमोहन कोकास 
        मेरे दादा जी दिवंगत श्री जगमोहन कोकास को अपनी युवावस्था से ही पान खाने का बहुत शौक था यह शौक उनको उनके पुश्तैनी घर बैतूल से लगा था क्योंकि परिवार के अन्य सदस्य भी पान खाने का शौक रखते रखते थे इस खानदानी शौक में उनके पिता बाबूलाल जी वैद्य , चाचा बृजलाल , कुंदन लाल , सुन्दरलाल और बड़े भाई मनमोहन और मदनमोहन भी शामिल थे


     
        उन दिनों बैतूल के कोठी बाज़ार में रूपनारायण चौरसिया की पान की दूकान काफी प्रसिध्द थी उन्हें सब रुप्पन काका से नाम से जानते थे उनकी दूकान पर काँच के दो सारस रखे रहते थे  जो रंगीन पानी में चोंच डुबा डुबा  लगातार पानी पिया करते थे । बैतूल में बंधे हुए पान को कागज़ में लपेटकर नहीं बल्कि पलाश के पत्ते में रखा जाता था जिससे वह कई घंटो तक सूखता नहीं था 


     
    
        उनकी पान की दुकान पर कई तरह की तम्बाखू , सुरती , सुगन्धित चूर्ण और किवाम , लक्ष्मी टेबलेट , खुशबूदार चटनी , चमनबहार ,अलग - अलग नम्बर की जाफरानी , लौंग ,इलायची , पिपरमेंट , कच्ची भूंजी सुपारी ,चिप्स सुपारी,गीली सुपारी  और ना कितने तरह की चीज़े मिला करती थी  रुप्पन  काका ग्राहक को उसकी पसंद की अनुसार पान बनाकर देते थे . पान के पत्तों में मीठा पत्ता , कपूरी पान , बंगला पान बनाकर प्रचलित थे


      पान से वे बीमारियों का इलाज़ भी करते थे जैसे अगर कोई खांसी से त्रस्त ग्राहक आता था तो वे उसे पान के अंदर लौंग जलाकर तुरंत लपेट देते और धुंए को पान के अंदर कैद करके तुरंत खाने को कहते देते  कत्था बनाने के लिए वे दूध का इस्तेमाल करते थे .दूध में पकाया  हुआ कत्था घोलने पर उसका रंग चोकलेटी हो जाता था चूने के साथ मिलकर यह कत्था होंठो पर बहुत बढ़िया रचता था मेरे दादा जी ने इसी दुकान में पान खाना सीखा था


      दादा जी जब बैतूल के बाद पढ़ने के लिए बाहर निकले नागपुर के पॉलीटेक्नीक कॉलेज में आये तो उनका शौक कम हो गया फिर उनकी नौकरी शिक्षा विभाग में महाराष्ट के चान्दुर और उमरखेड  में रही उसके बाद वे भंडारा महाराष्ट में आ गये लेकिन वहां उनको बैतूल जैसा पान नहीं मिलता था इसलिए उन्होंने घर में पान का डिब्बा रखना शुरू किया


     
दादा जी का सरौता 
          दादा जी का पान का डिब्बा नक्काशीदार मुरादाबादी पीतल का था जिसे वे मुरादाबाद से लाए थे इस डिब्बे में तरह - तरह की चीजे रहती थी वे भूंजी सुपारी खाने के शौक़ीन थे भूंजी सुपारी लाते और सरोते से काटकर उसके छोटे - छोटे टुकड़े करते लेकिन सुपारी इतनी बड़ी होती थी कि सरोते की  दो धारों के बीच नहीं आती थी तब वे सुपारी को फर्श पर रखकर हथौड़ी से उसके टुकड़े करते फिर सुपारी से उसे कतरते .भूंजी सुपारी के ऊपर चूना लगा होता जिसे फोड़ते समय उनके हाथ भी सफेद हो जाते थे बाद में दांत कमजोर हो जाने पर उन्होंने भूंजी सुपारी की बजाए चिकनी सुपारी खाना शुरू किया कभी - कभी वे भरडा सुपारी भी खाते थे


मीठा पान 
    
कत्था 
     
कपूरी पान
       पान में उन्हें पका कपूरी पान पसंद था । पके हुए यह कपूरी पान का पत्ता सुनहरे रंग का होता था जिसमें आधा मीठा पान का पत्ता मिलाकर वे पान तैयार करते थे
 यह इतना बढ़िया पान होता था कि मुँह में रखते ही घुल जाता था । अब यह लगभग दुर्लभ पान है । उनके पान के डिब्बे में पोस्टर कलर की खाली  बोतल में घुला हुआ चूना , विक्स वेपोरब की खाली शीशी में घुला हुआ कत्था रहता था वे दूध में कत्था नही घोलते थे क्योंकि उसके जल्द खराब हो जाने की सम्भावना रहती थी उसे पानी में ही घोल लेते थे । उसके अलावा उनके पास सूखा कत्था रखने के लिए पीतल की एक सूखे कत्थे की कत्थादानी भी होती थी ,नमकदानी की तरह जिसके ऊपर छेद थे ।




      
       दादा जी हर इतवार और बुधवार गांधी चौक के पान बाजार से जहाँ बड़े बड़े बांस के टोकरों में पान रखे होते थे 20 कपूरी और 10 मीठा पत्ती पान लाते थे उसके साथ चूना मुफ्त मिलता था चूने को वे चूने की शीशी में डाल देते और पान को पानी की टंकी में उसके बाद उन्हें वे अच्छे से धोते थे और गीले बोरे के टुकड़े में लपेटकर रखते थे यह उनका पान रखने का फ्रीजर था



     
पिपरमेंट के क्रिस्टल 
        उनका पान बनाने का तरीका बहुत मजेदार था और पान बनाने में उन्हें पूरे 5 मिनट लगते थे पहले वे कपूरी पान का एक पत्ता निकालते फिर मीठे के पान के दो टुकड़े करके आधा पत्ता  उस पर रखते उसके बाद वे उस पर चूना लगाते . उन्होंने चूना लगाने के लिए स्टील के चम्मच की डंडी के पिछले हिस्से का आधा टुकड़ा डिब्बे में रखते थे और उसी से पान पर चूना और कत्था लगाते थे उसके बाद वे सुपारी को कतरकर छोटे - छोटे टुकड़े पान में डालते फिर इलायची को फोड़कर उसमें से चार दाने डालते फिर ठंडाई या पिपरमेंट के क्रिस्टल का छोटा सा टुकड़ा वे पान में डालते थे पिपरमेंट की शीशी को वे धागे से लेपटकर रखते थे ताकि गर्मी की वजह से पिपरमेंट उड़ ना जाए


            
चमनबहार नाम सुनते ही मन में चमनबहार सी की खुशबू आ गई 
        इस प्रकार का  पान सादा पान कहलाता था . लेकिन दादा जी को तो स्पेशल पान चाहिए होता था
अब वे इसके बाद चमनबहार की डिब्बी से रोज पाउडर छिड़कते थे वे जैसे छिड़कते थे उसकी खुशबू पूरे घर में फ़ैल जाती थी मैं दादाजी के पास जाती और अपना हाथ फैला देती और दादा जी मेरे नन्हे - नन्हे हाथों पर थोड़ी सी चमनबहार छिडक देते थे जिसे में चाटकर खाती थी अब मेरा दादा जी के साथ यह नियम बन गया था वे पान खाते थे और चमनबहार इसलिए दादा जी को समझ आ जाता था कि मैं उनके पास चमनबहार खाने आई हूँ तो वे बोलते थे पहले घुटने के बल जमीन पर बैठो और हमको मीठी - मीठी पप्पी दो फिर देंगे तुमको चमनबहार तो मैं ऐसा ही करती थी मुझे चमनबहार और उसकी डब्बी बहुत पसंद थी इसलिए दादा जी मुझे डब्बी या डिब्बी कहकर बुलाते थे दादा जी मुझे कभी अपना पान का डिब्बा छूने नहीं देते थे क्योंकि उन्हें डर रहता था कि अगर हम पान का डिब्बा खोलंगे तो चमनबहार खा लेंगे फिर ज्यादा चमनबहार खाना नुकसान करता है इसलिए वे देखते रहते थे कि पान का डिब्बा मैं खोल ना पाऊं और दादा जी चमनबहार की खाली डिब्बियां संभालकर मेरे रंगोली बनाने के लिए रंग रखने के लिए रखते थे और जब भी मैं दिवाली पर भंडारा आती तो दादी माँ मुझे वे डिब्बे रंग रखने के लिए दे देती थी


     
भंडारा में गांधी चौक में स्थित गोपाल जी का अमृत पान भंडार 
           इसके बाद वे लक्ष्मी टेबलेट पान पर डालते थे दादा जी को तम्बाखू खाने का भी शौक था उन्हें यह शौक तब लगा जब उन्हें दांत में दर्द शुरू हुआ उनसे किसी ने यह कहा कि दांत के दर्द में तम्बाखू खाने से दर्द ठीक हो जाता है दादा जी को तम्बाखू में गोडबोले जर्दा पसंद जो केवल भंडारा में ही मिलता था वे एक चुटकी जर्दा अपने पान में डालकर खाते थे कभी - कभी वे तम्बाखू थूकने के बजाए निगल लेते थे तो उन्हें हिचकी आती थी उनको हिचकी लेता देखकर हम लोगो को बड़ा मजा आता था हिचक - हिचक करते थे तो हम सब उनके पास जाकर हिचक - हिचक किया करते थे अपने जीवन के अंतिम दिनों में जब वे हमारे पास दुर्ग रहने आये तो तभी वे अपने साथ गोडबोले जर्दा तम्बाखू साथ ले आये करते थे वे दिन में चार से पांच बार पान खाया करते थे पहला सुबह चाय के बाद ,दूसरा सुबह के नाश्ते के बाद ,तीसरा दिन में खाने के बाद ,चौथा पान शाम की चाय के बाद और पांचवा अंतिम पान रात के खाने के बाद खाया करते थे


      दादा जी के बारे में एक बढ़िया किस्सा मेरे पापा सुनाते थे .उस जमाने में जब पैंसेजर ट्रेन चला करती थी तो दादा जी अपने परिवार सहित उसी ट्रेन में सफर किया करते थे  भीड़ भरे डिब्बे में वे घुस जाते और धीरे से अपना पान का डिब्बा कहीं रखकर खोलते फिर हथेली पर  पान का पत्ता रखकर पान बनाते तो ऐसे छोटे - छोटे पान बनाकर वे सहयात्रियों को खिलाते धीरे धीरे  सहयात्री उन्हें और परिवार को बैठने की जगह दे देते थे दादी माँ यह सारा नजारा देखते हुए पापा से कहती लो तुम्हारे बाबूजी की पान की दुकान यहाँ भी खुल गई और दादी माँ और बाक़ी सब हंसने लगते थे


     
बैतूल में लाला जायसवाल की दुकान पर अपने मित्र यशवंत भावसार और प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार चौबे  के साथ पापा तस्वीर लेते हुए 
     
केलाबाड़ी में स्थित विनोद पान भंडार 

            दादा जी के पान का डिब्बा घर में होने के बावजूद पापा को कभी पान खाने का शौक नहीं लगा हालांकि पापा कभी - कभी बैतूल में लाला जायसवाल की दुकान पर अपने मित्र यशवंत भावसार और अरुण कावले के साथ पान जरुर खाते थे दुर्ग के केलाबाड़ी मौहल्ले में रात को साहू पान ठेला या बिनोद पान भंडार की दुकान से रात के खाने के बाद खाया करते थे लेकिन दादा जी के सामने वे कभी पान नहीं खाते थे


    
        दादा जी के पान खाने का यह अनोखा शौक उनके जीवन के अंत समय तक कायम रहा  दादा जी की मृत्यु के समय उनका मुँह खुला रह गया था उनके अंतिम संस्कार से पहले भिलाई में रहने वाली सुशीला दादी ने मुझसे कहा कि बेटा दादा जी को पान बहुत पसंद था ना तो मैंने ने पान बनाया और उन्होंने पान में जैसे ही चमनबहार डाली तो मुझे बहुत तेज़ रोना आ गया कि अब मुझे कौन चमनबहार खिलायेगा और रोते हुए बनाया हुआ पान मैंने दादा जी के खुले हुए मुँह में अंतिम बार अपने हांथो से  रख दिया  


     
दुर्ग में दादा जी की फोटो के पास चमनबहार की छोटी डिब्बी 
        दादा जी के ना रहने के बाद हमने आज भी उनका सरोता , पान का डिब्बा संभाल कर रखा है और हमारे घर के हॉल में दादा जी की याद में उनकी फोटो के पास चमनबहार की छोटी डिब्बी रखी है जिसका ढक्कन खोलने पर उनकी यादों की खूशबू उड़ा करती है और उनका पान खाने का अनोखा अंदाज याद आ जाता है





कॉलेज की गलियाँ और तीन सखियाँ

बीच में मैं कोपल मेरे दाएं तरफ इशरत बाएँ तरफ प्रीती 


          हम तीन सखियाँ है प्रीती और इशरत और मैं हम तीनो की मुलाक़ात तब हुई जब हम तीनों ने एम्.एस.सी के ह्यूमन डेवलपमेंट विषय में एडमिशन लिया हालांकि मैं इशरत को पहले से जानती थी क्योंकि मैं जिस स्कूल में थी उसी स्कूल स्कूल में इशरत भी थी वो मेरी उस वक्त सीनियर थी कॉलेज के एडमिशन रजिस्टर में नाम देखा तो लगा कि हाँ ये वही होगी जब हम सब क्लास में पहली बार मिले तो एक दुसरे के नाम और चेहरों से परिचित हुए , एक दूसरे की कमियां खूबियां तो साथ रहते ही पता चला थी


         
पीले सूट में इशरत ,गुलाबी में प्रीती , फिरोजी में मैं कोपल 
            धीरे-धीरे जब क्लासेस लगना शुरू हुई तो हम रोज एक दूसरे के आने का इन्तजार करते थे शुरुआत में हम ज्यादा बातें नहीं करते थे पर एक क्लास में थे इसलिए बाते तो करना जरूरी था सबसे ज्यादा लड़ाई मेरी और इशरत की होती थी उसका स्वभाव ही ऐसा था कि वह जरा सी बात पर गुस्सा करने लगती थी तो मेरी उसकी जबर्दस्त लड़ाई हो जाती थी मैं उस पर बिफर जाती थी क्योंकि मेरी आदत भी ऐसी थी कि किसी ने कुछ बोला तो दिमाग में चिंगारी भड़कने लगती प्रीती ही थी जो मेरी और इशरत की लड़ाई को सुलझाती थी प्रीती और मेरी लड़ाई याद भी नही है कि हुई थी या नही पर इशरत और मेरी लड़ाई तो क्लास के अलावा और भी लोगों को पता चल जाती थी कहते है दो बर्तन पास आयेंगे तो बजेगे ही बस यही होता था 
हमारी लड़ाई नोट्स एक दुसरे को देने के लिए , क्लास में इन्तजार नही किया कैंटीन चले गये , फोन किया कि आज नहीं आ रहे है , मेम को क्लास में कौन बुलायेंगा ( इसलिए क्योंकि हम हमारे सब्जेक्ट में 3 ही थे इसलिए हमें मेम को बुलाना पड़ता था ) बाद में हमने इसका तोड़ निकाल लिया था हप्ते के 6 दिन में तीनों बारी - बारी से बुलाने जायेंगे
 
हम तीन 

         
         कुछ ही वक्त में हम तीनों आपस में घुलमिल गये थे ऐसे जैसे शरबत में शक्कर घुल जाती है और नई मिठास ले आती है इतनी गहरी दोस्ती हो गई कि हम क्लास के सारे काम मिलकर ही करते थे , एक दूसरे की मदद करना क्योंकि हमारा विषय ही ऐसा था कि हम 2 बेंच मिलाकर 3 तीन लोग काम करते थे बहुत सारे सब्जेक्ट के सेमीनार बनाना , प्रोजेक्ट , प्रेजेंटेशन बनाना , नोट्स बनाना , प्रैक्टिकल का काम करना लिखने का काम ही बहुत होता था टिफिन में लाती थी और प्रीती पर हमें खाने का ही समय नहीं मिलता हम अपने टिफिन में जानबुझकर ऐसी चीजें रखते थे तो सूखी हो जिसे आराम से खाया जा सके हम रोज आपस में बांटकर ही खाते थे और काम किया जा सके लिखने का । कभी - कभी ऐसा भी होता था कि हमारी चोबे मैडम हमें कहकर जाती बेटा काम खत्म करके अब तुम लोग टिफिन भी कर लो पर वो जब आती थी लिखने का काम खत्म ना हुआ हो तो हम खाना भूल जाते थे फिर हम मेम से बोलते मेम हम लोग टिफिन नहीं कर पायें है क्या करे मेम तो मेम कहती ठीक है बच्चों आप लोग पहले खा लो फिर मुझे बुला लेना हम जल्दी - जल्दी खाते और फिर जाकर मेम को बुलाते

       
काम और कुछ देर का ब्रेक लाइफ का सबसे सुकून वाला टाइम 
       प्रैक्टिकल के काम के लिए हमें कहीं भी जाना पड़ता था ढेर सारा काम और वक्त कम हमारे विषय में हमें कुछ समझ ही नहीं आता सब भूल भुलैया जैसा हो जाता था दिमाग़ के ऊपर से आधी से ज्यादा चीजें हवा में उड़ जाती थी तब हम तीनों अलग - अलग बेंच पर बैठे सोचते रहते थे कि क्या किया जाएं कुछ समझ ही नहीं आ रहा है हमारा हाल उन चारों सेमेस्टर में ऐसा था कि पल में खुशी पल में दुखी इतना तनाव होता था फिर भी हम साथ बैठते थे और एक दूसरे की प्रोब्लम्स को हम करते थे अरे यहाँ समझ नहीं आ रहा है चल बैठकर ठीक करते है एक दूसरे की मदद करते - करते कभी कभी ऐसा होता था कि हम अपना भूल जाते थे


        
         हमारे सब्जेक्ट में हमारी सिर्फ दो ही शिक्षिकाएं थी एक चोबे मेम और एक वर्मा मेम हमारी सबसे ज्यादा प्रिय चोबे मेम थी हर सब्जेक्ट के नोट्स देना सब सब्जेक्ट्स को बहुत बारीकी से आराम से समझाना तब जब तक कि हम समझ ना जाएं हर छोटी सी बात में चोबे मेम हमारी मदद के लिए तैयार रहती थी हमारी परेशानी वो हमारे चेहरे पढ़कर समझ जाती थी और पास बुलाकर पूछती थी बहुत प्यार से कि बेटा बताओ क्या बात है हमें कभी डर नहीं लगा चोबे मेम से और हमारी वर्मा मेम चोबे मेम की बिलकुल विपरीत थी कभी - कभी वो क्लास में बुलाने पर नहीं आती थी उनका स्वभाव ही निराला था नोट्स ना देना ना ये बताना उनके सब्जेक्ट के सिलेबस में क्या है कहाँ से ,कौन सी किताब से पढ़ना है उन्होंने कभी हमारी मदद नहीं कि हमेशा यही कहती फिरती थी पूरे स्टाफ में कि ये तीनों कुछ करते ही नहीं है सब मैं करती हूँ ये लोग सिर्फ बातें करते है बैठकर उनकी बातें सुनकर हम तीनों बिलकुल गुस्से के रौद्र रूप में आ जाते थे ऐसा लगता था कि अभी जाकर उनसे कहें कि हमें नहीं पढ़ना आपसे पर हम तीनों पर प्रेशर था पढ़ाई का इसलिए कुछ नहीं कर पाते थे


      
         हम तीनों मैं , प्रीती , इशरत कभी कैंटीन , कभी गार्डन , कभी किसी स्कूटी पर , कभी एक दूसरे के घर पर बैठकर प्रैक्टिकल और बाक़ी काम करते थे और हमें देखकर हमारे ही साथ वाले जो टेक्सटाइल सब्जेक्ट में थे कहते थे कि बाप रे कितना ज्यादा काम करते हो तुम लोग पूरे समय लिखते रहते हो हम तीनों एक साथ बोलते थे आ जाओ ना हेल्प कर दो तो वो लोग बोलते हुए निकल जाते अरे हमारे पास भी बहुत काम है धीरे - धीरे हम लोग साथ रहते हुए एक दूसरे को बहुत समझने लगे थे कोई भी तकलीफ होती थी तो हम आपस में बाते करके सोल्व किया करते थे हमारी तिकड़ी पूरे कॉलेज में फेमस थी क्योंकि हम हमारे सब्जेक्ट में सिर्फ तीन ही थे तो इसी नाम से फेमस हो गए थे हम ज्यादा वक्त लाइबेरी में रहते थे एक दूसरे से नोट्स शेयर करते , कभी होस्पिटल में सेमीनार के टोपिक के लिए रोज चक्कर काटते रहते इस भाभी से सवाल करने के लिए तो कभी कोई और भाभी से ऐसा भी होता था कोलेज पहुंचकर हम क्लास ना जाकर सुबह से होस्पीटल में जाकर सवालों की तैयारी करते हम काम की शुरुआत ही पहले कॉफ़ी बिस्किट करते थे कि काम शुरू करना कर लो वरना जे भी खाने को नहीं मिलेगा और कभी जल्दीबाजी में चाय कॉफ़ी भी नहीं मिल पाता था


       मोबाइल फोन हमारे लिए सबसे बड़ी चीज़ था उस वक्त एक दूसरे को टाइम तो बता देते थे कि इतने बजे पहुंच जाना है पर जरा आगे पीछे होते ही हमारी जान सूखने लगती कि अरे क्या हो गया पहुंचे नहीं सबसे ज्यादा देर प्रीती को ही होती थी हम उसके आते ही इतनी जल्दी भागते थे जैसे होस्पिटल में अंदर कोई हमारे घर का भर्ती हो चुपचाप बाहर इंजतार करते रहते कब भाभी आए तो सवाल पूछे इस चक्कर में मुन्ने के आने पर दोनों तरफ की मिठाई का लुत्फ़ भी उठाया और डबल सवाल भी पूछते थे कभी हमारा सेमीनार प्रोजेक्ट स्वीकार नहीं करती वर्मा मेम तो हमें लगता था जैसे सारी मेहनत बेकार चली गई

           
      
             इन्ही कॉलेज की ख़ास दिनों में वो घटना कभी भुलाए नहीं भूलती जब हम एम् . सी के पहले ही सेमेस्टर में थे और उस दिन सेकेण्ड सेमेस्टर के लिए एडमिशन फॉर्म भरना था और हमारे एक सेब्जेट में हमें नर्सरी के बच्चों को टीचिंग देना होती थी जिसके हमें मार्क्स मिलते थे हमारी वर्मा मेम तो स्वभाव से रुखी थी जिन्हें हमारा काम कभी पसंद ही नहीं आता था हम सब पढ़ा ही रहे थे तभी वहां मेम आई और उन्होंने हमें बहुत डांट लगाई कि तुम कुछ करते नहीं हो और बहुत सारी बातें सुनाई उस स्कूल की प्रिंसिपल मेम से हम लोगों की शिकायत कर दी उन मेम ने भी हम लोगों को बहुत डांटा और ये सब देख सुनकर हम कुछ देर वही बैठे और हमने फैसला कर लिया कि हम सब अब आगे कि पढ़ाई नहीं करेंगे और अपना सामान उठाया और कॉलेज की और निकल गये उसी दिन सेकेण्ड सेमेस्टर की परीक्षा के लिए  फॉर्म भरना था पर हम तीनों को इतना रोना आ रहा था कि ना मन हो रहा था ना कदम उठ रहे थे कि जाकर फॉर्म ले आये हम सब क्लास में गये और अलग - अलग बेंच पर गुमसुम से बैठ गये ऐसे जैसे सब खत्म हो गया है हम तीनों बहुत रोए तभी वहीं से हमारी कोबे मेम निकल रही थी उन्होंने हम तीनों को ऐसे रोते हुए देखा तो वो घबराते हुए उन्होंने प्यार से पूछा कि बताओ बेटा क्या बात पर हमारा रोना तो बंद ही नहीं हो रहा था गले से आवाज़ ही नहीं निकल रही थी मेम ने हम तीनों से कहा कि बेटा पहले चुप हो जाओ फिर एक - एक करके बताओ फिर हम तीनो ने बारी - बारी से उन्हें बताया कि वर्मा मेम ने हमें कितना डांटा वो भी प्रिंसिपल मेम के सामने चोबे मेम ने कहा वर्मा मेम को ऐसा नहीं करना चाहिए था वो प्रिंसिपल मेम कौन होती है हमारे बच्चों को डांटने वाली मेम ने कहा घबराओ मत बच्चों मैं तुम सबके साथ हूँ

           चोबे मेम के ही इस स्नेहपूर्ण व्यवहार के कारण और साथ की वजह से ही हम तीनों में एम.सी की पढ़ाई आगे जारी रखने की ललक जागी और हम सब नीचे जाकर फॉर्म लेकर आये और जमा करके कुछ नया करने के और अपने कदम आगे बढ़ा लिए इस घटना से हमें एक सीख मिल गई थी ये कॉलेज की ज़िन्दगी है और जब तक हम यहाँ है तब तक ऐसी छोटी -मोटी मुशिकलें तो आती पर हमें हिम्मत नहीं हारना है बल्कि आगे बढ़ते जाना है और हर डांट को चुनौती समझकर स्वीकार करना है और इसी हिम्मत हौसले से हम तीनों एम्.एस सी बहुत अच्छे मार्क्स से पास किया


             
हमारी तिकड़ी 
         ऐसे अनोखे दिन थे वो आज भी याद करो सारे दिन याद कैलेंडर के पन्नों की तरह दिमाग़ में पलटने लगते है वो लम्हे यादों में कैद होने लगते है इन दोनों के साथ रहते हुए बहुत अच्छी बातें सीखने मिल गई जैसे एक दुसरे के साथ ईमानदारी से काम करना , मिल बांटकर रहना , किस तरह किसी मुश्किल को कैसे हल करना है हम तीनों मैं प्रीती इशरत आज भी अच्छे दोस्त है आज इशरत और प्रीती की शादी हो गई और वे अपने परिवार में खुशहाल जिन्दगी बिता रही है आज भी हम  एक दूसरे के घर जाते है तो बैठकर  याद करते है कॉलेज के वक्त की कि इशरत ,प्रीती और कोपल कैसे हुआ करती थी और याद करके हम हँसते है
आज भी कॉलेज की गलियों में उतनी ही मशहूर है हम सखियों की कहानी जितनी उस वक़्त थीं जब हम पढ़ते थे 


          

जज्बा ,जोश ,साहस , हिम्मत कहता है कहानी पर्वतारोही अरुणिमा सिन्हा ही

           
     जब ह्यूमन डेवलपमेंट विषय में एम् .एस.सी कर रही थी तब हमारा एक विषय था disabiltiy इन children इसके अंतर्गत हम बच्चों में जो निर्योग्य्ताएं होती है उनके बारे में विस्तार से अध्ययन करते थे कभी किसी विकलांग व्यक्ति  के बारे में , कभी जो व्यक्ति सुन नहीं सकता बोल नहीं सकता जिसे दिखाई नहीं देता , या वो पढ़ाई में पिछड़ा है , मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है , और भी अन्य कई निर्योग्यताओ के बारे में हमने अध्ययन किया था

            मेरे इसी विषय की परीक्षा थी और मैं तब वाकई यह नहीं जानती थी कि अरुणिमा सिन्हा कौन है उनके बारे में ज्यादा नहीं जानती थी उस वक्त मेरा एक प्रोजेक्ट था जो मुझे बनाकर देना था जिसमें ऐसे वो व्यक्ति जो बहुत प्रसिध्द हो और वे किसी किसी निर्योग्यता से ग्रसित हो उन पर लिखना था तब मैंने नेट पर सर्च किया , कई किताबें पढ़ी , अपनी टीचर से इसके बारे में बातें की फिर मैंने अरुणिमा सिन्हा के बारे में लिखा और एक दो और व्यक्तियों के बारे में लिखा जिसमें मुझे प्रैक्टिकल एग्जाम में बहुत अच्छे मार्क्स मिले थे क्योंकि मेरा सेमीनार प्रोजेक्ट बहुत बढ़िया बना था

             जब मैंने लिखा तब मुझे पता चला कि हिमालय की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर विजय पताका फहराने वाली अरुणिमा सिन्हा है जिनका हौसला जिनकी यह घटना उनके साहस और जुनून की कहानी बताती है कि वे कितनी हौसलों से भरी हुई है ..

   देखने में बेहद साधारण नाकनक्श वाली छोटी सी लड़की, लेकिन चेहरे पर पहाड़ जैसी दृढ़ता। जैसे ही वह सामने आई मुझे समझ गया कि यही है अरुणिमा जिसने अपने काम से पूरे देश की लड़कियों को एक सीख-एक सबक दिया है। यही है वह अरुणिमा जिसने एक पैर के कटने के बावजूद बेचारी बनकर जि़ंदगी गुजारना गवारा नहीं किया। पैर के कटने के साथ ही उसने तय कर लिया कि उसे जि़ंदगी यूं ही नहीं गुजारनी, कुछ कर दिखाना है। सिर्फ अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने प्रदेश- अपने देश की बहुत सी लड़कियों का भाग्य भी बनाना है।

         उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर निवासी अरुणिमा सिन्हा ने यह बात साबित की है कि 'हौसला हो तो कुछ भी असंभव नहीं है।' अरुणिमा का एक पैर नहीं है और दूसरे पैर में स्टील की कई रॉड पड़ी हैं। ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब अरुणिमा ने दुनिया की सबसे ऊंची एवरेस्ट चोटी फतह की थी लेकिन उसके बाद भी उन्हें तसल्ली नहीं हुई और वे निकल पड़ी एक और चोटी को जीतने। एवरेस्ट के बाद तंजानिया के किलिमंजारो और अब रूस में स्थित चोटी एलब्रुस पर भारतीय झंडा फहरा दिया है उन्होंने। खास बात यह थी कि इस बार वह टीम का नेतृत्व स्वयं कर रही थीं। ये जज़्बा, ये जोश और ये जुनून किसी-किसी में ही होता है। अब अरुणिमा का लक्ष्य है सात महाद्वीपों की सबसे ऊंची सात चोटियाँ। हालांकि वे कहती हैं, 'इसके पीछे मेरा मकसद प्रशंसा पाना या फिर कोई रिकॉर्ड बनाना नहीं है। मैं तो अपने देश की पिछड़ती हुई लड़कियों में नये जोश और हिम्मत का संचार करना चाहती हूं। मैंने खुद अपने अंदर जो आत्मविश्वास- जो बदलाव महसूस किया है, मैं वही बदलाव और आत्मविश्वास अपने देश की सभी ऐसी लड़कियों में देखना चाहती हूं जो खुद को कुछ नहीं समझती हैं। वे खुद नहीं जानती कि उनमें कितना कुछ है। वे क्या नहीं कर सकतीं।"

          राष्ट्रीय स्तर पर बॉलीवॉल खेलने वाली अरुणिमा सिन्हा को अप्रैल 2011 में गुंडों ने चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया था। इस हादसे में उनका बायां पैर बुरी तरह जख्मी हो गया था। हादसे को याद करते हुए अरुणिमा गंभीर हो जाती हैं, 'मैं पटरियों के बीच कटी टांग के साथ सारी रात पड़ी रही। कैसे बेहोशी की सी हालत में रात गुजरी। भगवान की कृपा है जो मैं सुबह तक ऐसी हालत में रही कि सुबह वहां आए लोगों को अपने घर का फोन नम्बर बता सकी। मुझे जिस अस्पताल में ले गए वहां बेहोशी के बावजूद मैं डॉक्टरों की बातें सुन पा रही थी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि इतने इंफेक्शन के चलते वे क्या करें। वहां ऐनेस्थीसिया तक की सुविधा नहीं थी। तब तक मेरे घर से कोई वहां नहीं पहुंचा था। तब मैंने ही जोर देकर कहा कि मुझे बेहोश किए बिना मेरा पैर काट दें। शायद उन्हें मेरी हिम्मत देखकर अच्छा लगा, अस्पताल के एक फार्मासिस्ट और एक डॉक्टर ने अपना खून देकर मेरी जान बचाई।" अरुणिमा की रीढ़ की हड्डी में भी तीन फैक्चर पाए गए थे। उनके दाएं पैर की भी दो हड्डियां टूटी थी जिन्हें ठीक करने के लिए कुछ दिन बाद ऑपरेशन किया गया।

         अरुणिमा अपनी उपलब्धियों का श्रेय एवरेस्ट फतह करने वाली पहली भारतीय महिला बछेन्द्री पाल को देती हैं। वे कहती हैं, "मैडम मेरे लिए एक देवी के समान हैं। उन्होंने जो मेरे लिए किया है और दूसरी लड़कियों के लिए कर रही हैं, वैसा बहुत कम इंसान किसी के लिए करते हैं।" अरुणिमा की ही हिम्मत थी, जिसे देखकर बछेन्द्री पाल भी दंग रह गई थीं। अरुणिमा बताती हैं कि उस भयानक हादसे के बाद अस्पताल में पड़े-पड़े कैसे उन्होंने मन ही मन एवरेस्ट को फतह करने की ठान ली थी। इसी जुनून को पूरा करने के लिए किसी तरह उन्होंने बछेन्द्री पाल का फोन नम्बर हासिल कर उनसे बात की। अगले ही दिन अस्पताल से अपने घर जाकर उनसे मिलने सीधे जमशेदपुर जा पहुंची। जब बछेन्द्री पाल को पता लगा कि कल रात जो लड़की दिल्ली के एम्स से उनसे बात कर रही थी, वह सुबह जमशेदपुर के रेलवे स्टेशन से फोन कर रही है तो उन्हें उसके जुनून को मानना ही पड़ा। वे तभी समझ गई थीं कि यह लड़की जरूर कुछ कर दिखाएगी।

          फिर बछेन्द्री पाल की ट्रेनिंग में अरुणिमा ने उत्तरकाशी में 'टाटा स्टील एडवेंचर फांउडेशन शिविर' में भाग लिया। वे बताती हैं, 'ट्रेनिंग के दौरान जब मैंने पहाड़ चढऩा शुरू किया, तब मैं धीरे-धीरे चढ़ पाती थी। मेरे साथी मुझसे कहते, हम आगे चल रहे हैं, तुम धीरे-धीरे आराम से जाना। तब मुझे बहुत बुरा लगता था लेकिन कुछ ही महीनों के बाद हालात इतने बदल गए थे कि मैं ऊपर सबसे पहले पहुंच कर बाकी लोगों का इंतजार किया करती थी। तब सभी लोग मुझसे पूछते थे कि मैं खाती क्या हूं।"

           इसके बाद जब अरुणिमा ने एक ही पैर के साथ एवरेस्ट की चढ़ाई पूरी कर ली तो लोगों को उनकी इच्छाशक्ति को मानना ही पड़ा। इसी के साथ अंग गंवाकर एवरेस्ट पर पहुंचने वाली पहली भारतीय बन गई। आजकल अरुणिमा सात चोटियों को फतह करने के अपने जुनून के साथ-साथ खेलों में और पर्वतारोहण के क्षेत्र में कुछ और बच्चों को भी तैयार कर रही हैं। इसे भी हिम्मत ही कहेंगे कि उनकी खुद भी पैरालम्पिक में 100 मीटर की रेस के लिए भी तैयारी कर रही है। उनको बीवीजी (भारत विकास ग्रुप इंडिया) स्पॉन्सर कर रहा है। वे कहती हैं कि मेरे पास ज्यादा तो कुछ नहीं है लेकिन जो भी है उससे अगर मैं जरूरतमंद बच्चों के कुछ भी काम सकी तो अपने जीवन को सार्थक समझूंगी। इसके अलावा वे लखनऊ में एक स्पोर्टस एकेडमी भी बनाने की कोशिश कर रही हैं, जिसमें विकलांग और गरीब बच्चों को खेलों के क्षेत्र में बढ़ावा दिया जाएगा।

              जब मैंने अरुणिमा के जीवन की इन घटनाओं को उस वक्त लिखा था तब मुझे यही लगा था कि किसी व्यक्ति में यदि कुछ करने का जज्बा हो , हौसला हिम्मत , जोश हो इच्छा हो तो चाहे एक पैर ना हो तो क्या हुआ जब हम अपने लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढ़ जाए तो हम विजय पताका लहरा के ही रहते है फिर मंजिल का रास्ता पहाड़ जितना कठिन ही क्यों ना हो