जीवन के अंधेरों में वो उजाले वाला दीपक

                 
                   बड़ी अजीब बात हम हर उस व्यक्ति को देखकर कहते है जो चुपचाप लकड़ी लिए काला चश्मा  पहने भीड़ में अकेला चला जा रहा है ताना कस देते है अरे वो देखो वो जा रहा है जो देख नहीं सकता कोई रंग किसी को पहचान नहीं सकता जिसके जीवन में रंग हो क्या उसकी ही जिन्दगी रंगभरी होती है और जिसके नहीं उसकी रंगहीन जीवन पर आपके जीवन से ज्यादा रंगभरी और खूबसूरत जिन्दगी उनकी होती है जो देख नहीं सकते है उनके पास विशवास है जो चाहकर भी खुद में नहीं ला पाते है वे तो सिर्फ अंधे है और हम देखकर भी उनकी तकलीफ पर हंसते है तो अँधा कौन हुआ हम या वो जो अंधेरो में भी सपने देखते है ।
                 कहते सुना है जिसने अपने जीवन मुश्किलें देखी हो वही व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की मुश्किलों समझ पाता है में सिर्फ अँधेरा ही अँधेरा है वही तो दुसरो के जीवन में दीपक बनकर उजाला कर सकता है ।
                आप देख नहीं सकते तो क्या हुआ एक कदम आगे बढ़ाओ यकीन है मेरा आपको आपके जैसे एक नहीं हजार मिलेगे ,जो कोई रंग नहीं देख सकते ,जिनकी दुनिया का बस एक ही रंग है काला पर इन आँखों पर सपने बहुत है , जो अकेले चल नहीं सकते वे ऊँची उड़ना चाहत रखते है जो सिर्फ छूकर महसूस कर सकते है
                पाठकों मेरी पक्की सहेली अनिका को भी कम दिखाई देता है उसे रतौंधी है जो देख नहीं सकते है उनमें वाकई एक गजब का आत्मविश्वास और बहुत कुछ करने की चाहत होती है मेरी दोस्त में भी बहुत आत्मविश्वास है जो उसे आगे बढ़ने को प्रेरित करता है आज तक कभी मैंने किसी के अन्धेरा का मजाक नहीं बनाया क्योंकि वो तो खुद एक उजाला वाला दीपक है जो दूसरों की जिन्दगी का उजाला बन जाता है  ।


जरूरी तो नही की
देखकर ही उजालो पर पंहुचा जाए
बिना देखे भी उजाले पर
पहुंचा जा सकता है
अगर कुछ करने की चाहत हो ।।


             दोस्तों आप समझ गये होंगे आज जो दृष्टिहीन व्यक्ति ह ब्रेल लिपि अपनी हाथों से पढ़ पा रहे है कुछ बन पा रहे है शिक्षित हो पा रहे है इस लिपि इसकी शुरुआत करने वाले और कोई नहीं फ्रांस में जन्मे लुई ब्रेल थे वे दृष्टीहीनो के लिए शिक्षा का दीपक बन गये 
            लुई ब्रेल फ्रांस के शिक्षाविद और अन्वेषक थे जिन्होंने अंधो के लिए लिखने और पढ़ने की एक प्रणाली विकसित की और यह पध्दति आज ब्रेल लिपि के नाम से पूरी दुनिया में प्रसिध्द है  दृष्टीबाधितों के मसीहा एवं ब्रेल लिपि के आविष्कारक लुई ब्रेल का जन्म फ्रांस के छोटे से गाँव कुप्रे में हुआ था । ब्रेल लिपि की खोज करने वाले नेत्रहीनो की पढ़ाई में हो रही कठनाइयों को दूर करने वाले लुई स्वयं भी नेत्रहीन थे । 4 जनवरी 1809 को मध्यम वर्गीय परिवार में जन्में लुई ब्रेल की आँखों की रोशनी महज तीन साल की उम्र में एक हादसे के दौरान नष्ट हो गई। परिवार में तो दुःख का माहौल हो गया क्योंकि ये घटना उस समय की है जब उपचार की इतनी तकनीक इजात नही हुई थी जितनी कि अब है 
बालक लुई बहुत जल्द ही अपनी स्थिती में रम गये थे। बचपन से ही लुई ब्रेल में गजब की क्षमता थी। हर बात को सीखने के प्रति उनकी जिज्ञास को देखते हुए, चर्च के पादरी ने लुई ब्रेल का दाखिला पेरिस के अंधविद्यालय में करवा दिया। बचपन से ही लुई ब्रेल की अद्भुत प्रतिभा के सभी कायल थे। उन्होने विद्यालय में विभिन्न विषयों का अध्यन किया। अध्ययन के दौरान ही लुई को पता चला की उस विधालय में शाही सेना के एक केप्टन चार्ल्स बार्बर सेना के लिए एक कूटलिपी का विकास क्र रहे है जिसकी मदद से अँधेरे में टटोलकर संदेशो को पढ़ा जा सकता था लुइस का मष्तिष्क सैनिकों के द्वारा टटोलकर पढ़ी जा सकने वाली कूटलिपि में दृष्ठिहीन व्यक्तियो के लिये पढने की संभावना ढूंढ रहा था। उसने पादरी बैलेन्टाइन से यह इच्छा प्रगट की कि वह कैप्टेन चार्लस बार्बर से मुलाकात करना चाहता है। पादरी ने लुइस की कैप्टेन से मुलाकात की व्यवस्था करायी। अपनी मुलाकात के दौरान बालक ने कैप्टेन के द्वारा सुझायी गयी कूटलिपि में कुछ संशोधन प्रस्तावित किये। कैप्टेन चार्लस बार्बर उस अंधे बालक का आत्मविश्वाश देखकर दंग रह गये। अंततः पादरी बैलेन्टाइन के इस शिष्य के द्वारा बताये गये संशोधनों को उन्होंने स्वीकार किया।कहते हैं ईश्वर ने सभी को इस धरती पर किसी न किसी प्रयोजन हेतु भेजा है। लुई ब्रेल की जिन्दगी से तो यही सत्य उजागर होता है कि उनके बचपन के एक्सीडेंट के पीछे ईश्वर का कुछ खास मकसद छुपा हुआ था। 1825 में लुई ब्रेल ने मात्र 16 वर्ष की उम्र में एक ऐसी लिपि का आविष्कार कर दिया जिसे ब्रेल लिपि कहते हैं। इस लिपि के आविष्कार ने दृष्टीबाधित लोगों की शिक्षा में क्रांति ला दी
            आंखों की रोशनी चली जाने के बाद भी लुइस ने हिम्मत नहीं हारी। वे ऐसी चीज बनाना चाहते थे, जो उनके जैसे दृष्टिहीन लोगों की मदद कर सके। इसीलिए उन्होंने अपने नाम से एक राइटिंग स्टाइल बनाई, जिसमें सिक्स डॉट कोड्स थे. वही स्क्रिप्ट आगे चलकर 'ब्रेल के नाम से जानी गई
          
            गणित, भुगोल एवं इतिहास विषयों में प्रवीण लुई की अध्ययन काल में ही फ्रांस की सेना के कैप्टन चार्ल्र्स बार्बियर से मुलाकात हुई थी। उन्होने सैनिकों द्वारा अंधेरे में पढी जाने वाली नाइट राइटिंग व सोनोग्राफी के बारे में बताया। ये लिपि उभरी हुई तथा 12 बिंदुओं पर आधारित थी। यहीं से लुई ब्रेल को आइडिया मिला और उन्होने इसमें संशोधन करके 6 बिंदुओं वाली ब्रेल लिपि का इज़ात कर दिया। प्रखर बुद्धीवान लुई ने इसमें सिर्फ अक्षरों या अंकों को ही नही बल्कि सभी चिन्हों को भी प्रर्दशित करने का प्रावधान किया। यह लिपि कागज पर अक्षरों को उभारकर बनाई जाती थी और इसमें 12 बिंदुओं को 6-6 की दो पंक्तियों को रखा जाता था, पर इसमें विराम चिह्न, संख्‍या, गणितीय चिह्न आदि का अभाव था।

            प्रखर बुद्धि के लुई ने इसी लिपि को आधार बनाकर 12 की बजाय मात्र 6 बिंदुओं का उपयोग कर 64 अक्षर और चिह्न बनाए और उसमें न केवल विराम चिह्न बल्कि गणितीय चिह्न और संगीत के नोटेशन भी लिखे जा सकते थे। यही लिपि आज सर्वमान्य है। लुई ने जब यह लिपि बनाई तब वे मात्र 15 वर्ष के थे। सन् 1824 में बनी यह लिपि दुनिया के लगभग सभी देशों में उपयोग में लाई जाती है। 
          हमारे देश में भी ब्रेल लिपि को मान्यता प्राप्त है। इस‍ लिपि में स्कूली बच्चों के लिए पाठ्‍युपस्तकों के ‍अलावा रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथ प्रतिवर्ष छपने वाला कालनिर्णय पंचांग आदि उपलब्ध हैं। ब्रेल लिपि में पुस्तकें भी निकलती हैं
            उनकी प्रतिभा का आलम ये था कि, उन्हे बहुत जल्द ही विद्यालय में अध्यापक के रूप में नियुक्त किया गया। शिक्षक के रूप में भी वो सभी विद्यार्थियों के प्रिय शिक्षक थे। लुई ब्रेल सजा देकर पढाने में विश्वास नही करते थे। उन्होने ने शिक्षा पद्धति को एक नया आयाम दिया तथा स्नेहपूर्ण शिक्षा पद्धति से अनूठी मिसाल कायम की।
         उनका जीवन आसान नही था। परंतु उनके अंदर आत्मविश्वास से भरी ऐसी शक्ति विद्यमान थी, जिसने हमेशा आगे बढने को प्रोत्साहित किया। समाज में एक ऐसा वर्ग भी विद्यमान था, जिसने उनकी योग्यता को उनके जीवन काल में अनेकों बार उपेक्षित किया। अपने धुन के पक्के लुई ब्रेल को इस बात से कोई फरक नही पङता था। वो तो एक सन्यासी की तरह अपने कार्य को अंजाम तक पहुँचाने में पूरी निष्ठा से लगे रहे। उन्होने सिद्ध कर दिया कि जीवन की दुर्घटनाओं में अक्सर बङे महत्व के नैतिक पहलु छिपे हुए होते हैं        

लुई ब्रेल के जीवन ने इस कथन को शत् प्रतिशत् सच साबित कर दिया कि
ये तो सच है कि जरा वक्त लगा देते हैं लोग, फन को मनवा दो तो फिर सर पर बिठा लेते हैं लोग।
            उनको जीवनकाल में जो सम्मान नही मिल सका वो उनको मरणोपरांत फ्रांस में 20 जून 1952 के दिन सम्मान के रूप में मिला।। इस दिन उनके ग्रह ग्राम कुप्रे में सौ वर्ष पूर्व दफनाये गये उनके पार्थिव शरीर के अवशेष पूरे राजकीय सम्मान के साथ बाहर निकाले गये। उस दिन जैसे लुइस के ग्राम कुप्रे में उनका पुर्नजन्म हुआ। स्थानीय प्रशासन तथा सेना के आला अधिकारी जिनके पूर्वजों ने लुइस के जीवन काल में उनकेा लगातार उपेक्षित किया तथा दृष्ठिहीनों के लिये उनकी लिपि को गम्भीरता से न लेकर उसका माखौल उडाया अपने पूर्वजों के द्वारा की गयी गलती की माफी मांगने के लिये उनकी समाधि के चारों ओर इकट्ठा हुये। लुइस के शरीर के अवशेष ससम्मान निकाले गये। सेना के द्वारा बजायी गयी शोक धुन के बीच राष्ट्रीय ध्वज में उन्हें पुनः लपेटा गया और अपनी ऐतिहासिक भूल के लिये उत्खनित नश्वर शरीर के अंश के सामने समूचे राष्ट् ने उनसे माफी मांगी। राष्ट्रीय धुन बजायी गयी और इस सब के उपरान्त धर्माधिकारियों के द्वारा दिये गये निर्देशन के अनुरूप लुइस से ससम्मान चिर निद्रा में लीन होने प्रार्थना की गयी और इसके लिये बनाये गये स्थान में उन्हें राष्ट्रीय सम्मान के साथ पुनः दफनाया गया। सम्पूर्ण वातावरण ऐसा अनुभव दे रहा था जैसे लुइस पुनः जीवित हो उठे है। उनके पार्थिव शरीर को मृत्यु के 100 साल बाद वापस राष्ट्रीय सम्मान के साथ दफनाया गया। अपनी ऐतिहासिक भूल के लिये फ्रांस की समस्त जनता तथा नौकरशाह ने लुई ब्रेल के नश्वर शरीर से माफी माँगी। भारत में 2009 में 4 जनवरी को उनके सम्मान में डाक टिकट ज़ारी किया जा चुका है। उनकी मृत्यु के 16 वर्ष बाद सन् 1868 में 'रॉयल इंस्टिट्‍यूट फॉर ब्लाइंड यूथ' ने इस लिपि को मान्यता दी। 

          उनके मन में अपने कार्य के प्रति ऐसा जूनून था कि वे अपने स्वास्थ का भी ध्यान नही रख पाते थे, जिससे वे 35 वर्ष की अल्पायु टी.बी. की बीमारी केचपेट में आ गये। लुई ब्रेल का जीवन ए.पी.जे. कलाम साहब के कथन को सत्यापित करता है। कलाम साहब ने कहा था
अपने मिशन में कामयाब होने के लिये आपको अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित्त होना पङेगा।

         43 वर्ष की अल्पायु में ही दृष्टीबाधितों के जीवन में शिक्षा की ज्योति जलाने वाला ये प्रेरक दीपक 6 जनवरी 1852 को इस दुनिया से अलविदा हो गया। एक ऐसी ज्योति जो स्वंय देख नही सकती थी लेकिन अनेकों लोगों के लिये शिक्षा के क्षेत्र में नया प्रकाश कर गई।• भारत सरकार ने सन 2009 में लुईस के सम्मान में डाक टिकट  भी जरी किया गया 

8 टिप्पणियाँ:

Mahendra Kumar ने कहा…

बेहद खूबसूरत आलेख। बधाई एवं शुभकामनाएं।

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद महेन्द्र कुमार जी

कविता रावत ने कहा…

सच ईश्वर किसे क्या काम करके जाना है यही वही निश्चित कर देता है पहले से ही
बहुत सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति

Unknown ने कहा…

बहुँत शानदार लेख है , कोपल जी ।
क्या आप यह जानकारी भी देंगे कि अंधे लोग जिन्होंने कभी अपनी आँखों से दुनिया नहीं देखी हैं , उनको नींद में सपने ( Dreams) आते हैं ?
उनके सपने और आँखों वाले व्यक्ति के सपनों में क्या फर्क होता होगा ?

कोपल कोकास ने कहा…

जी जरूर बताउंगी की दृष्टिहीन व्यक्ति कैसे सपने देखते हैं

कोपल कोकास ने कहा…

धन्यवाद कविता जी

Paise Ka Gyan ने कहा…

Cat in Hindi
Elephant in Hindi
Tree in Hindi
Jupiter in Hindi
Parrot in Hindi
Rabbit in Hindi
Saturn in Hindi

Paise Ka Gyan ने कहा…

Tortoise in Hindi
Sparrow in Hindi
Mars in Hindi
Peacock in Hindi
Horse in Hindi
Tiger in Hindi
Moon in Hindi

एक टिप्पणी भेजें